नाथ सम्प्रदाय की आध्यात्मिक अवधारणा :
ब्रह्मा , विष्णु , महेश जिस पवित्र अनुपम प्रियदर्शी गोरक्ष की स्तुति करते हैं ऐसे श्री नाथ जी को अनंत कोटि आदेश।
सूर्य , चन्द्र ,सहित नवग्रह जिसके तेज से प्रकशित होतें हैं ऐसे देदीप्यमान दिव्य गोरक्ष को अनंत कोटि आदेश।
नवनाथजी गुरूजी के चरणों में आदेश आदेश। भर्तहरि वैराग्य को आदेश आदेश।
सूर्य , चन्द्र ,सहित नवग्रह जिसके तेज से प्रकशित होतें हैं ऐसे देदीप्यमान दिव्य गोरक्ष को अनंत कोटि आदेश।
नवनाथजी गुरूजी के चरणों में आदेश आदेश। भर्तहरि वैराग्य को आदेश आदेश।
गोरक्षनाथ जी अपने गुरु मत्स्येन्द्र नाथ जी से जिज्ञासा प्रकट कर पूछतें हैं :
ॐ गुरूजी ! राति न होती दिन कहाँ ते आया ?
दिन प्रकाश्या रति कहाँ समाया ? दीप बुझाया ज्योति कहाँ लिया वासा ?
पिंड न होता तो प्राण पुरुष का कहाँ होता निवासा ?
भावार्थ: हे गुरु देव ! रात्रि थी तब दिन कहाँ से आया ? और दिन (प्रकाश) होते ही रात्रि (अन्धकार) का लीन भाव कहाँ हो जाता है ? दीपक बुझने पर ज्योति कहाँ विलीन हो जाती है? शरीर नहीं था तब प्राण शक्ति का निवास कहाँ था ?
दिन प्रकाश्या रति कहाँ समाया ? दीप बुझाया ज्योति कहाँ लिया वासा ?
पिंड न होता तो प्राण पुरुष का कहाँ होता निवासा ?
भावार्थ: हे गुरु देव ! रात्रि थी तब दिन कहाँ से आया ? और दिन (प्रकाश) होते ही रात्रि (अन्धकार) का लीन भाव कहाँ हो जाता है ? दीपक बुझने पर ज्योति कहाँ विलीन हो जाती है? शरीर नहीं था तब प्राण शक्ति का निवास कहाँ था ?
मत्सेयेंद्र नाथ जी कहते हैं :
अवधू ! राति न होती दिन सहजै आया ,
दिन प्रकाश्यां राति सहजै समाया।
दीप बुझाया ज्योति निरंतर लिया वासा, पिंड न होता तब प्राण पुरुष का शून्य होता निवासा।
दिन प्रकाश्यां राति सहजै समाया।
दीप बुझाया ज्योति निरंतर लिया वासा, पिंड न होता तब प्राण पुरुष का शून्य होता निवासा।
भावार्थ:
हे गोरक्ष ! अज्ञानान्धकार मूल माया प्रकृति स्वरुप अनिच्छा रात्रि में चेतनत्व -धन शक्ति प्रकाश का सहज ही समावेश हुआ , तब ज्ञान-प्रकाश चेतन प्रभाव से ज्ञान तिमिर जड़ भाव स्थितत्व का विलीन हो गया। दीपक (मानव शक्ति) के बुझने पर चैतन्य -ज्योति चिदाकाश कूटस्थ (निरंतर) में वास करती है। शरीर न होने पर प्राण शून्याकाश में तत्त्व रूप सूक्ष्मांश-निवास था।
हे गोरक्ष ! अज्ञानान्धकार मूल माया प्रकृति स्वरुप अनिच्छा रात्रि में चेतनत्व -धन शक्ति प्रकाश का सहज ही समावेश हुआ , तब ज्ञान-प्रकाश चेतन प्रभाव से ज्ञान तिमिर जड़ भाव स्थितत्व का विलीन हो गया। दीपक (मानव शक्ति) के बुझने पर चैतन्य -ज्योति चिदाकाश कूटस्थ (निरंतर) में वास करती है। शरीर न होने पर प्राण शून्याकाश में तत्त्व रूप सूक्ष्मांश-निवास था।
”-वन्दे तन्नाथतेहो भुवनतिमिरहं भानुतेजस्फरं व सथ्कर्तृव्यापकं त्व पवनगतिकरं व्योमवन्निर्भरं व . मुद्रानादत्रिशूलैर्विमलरुचिधरं खर्परं भस्ममिश्रं द्वैतं व अऽद्वैतरूपं द्वयता उता परं योगिनां शङ्करं व .. ‘l
उपरोक्त सार से यह स्पष्ट हो जाता है की नाथ सम्प्रदाय का आध्यात्म न तो वेदान्तिक है और न ही द्वैत या अद्वैत वाद में विश्वास करता है अपितु इससे भी परे मानव और प्रकृति के पार महाशून्य में समा कर स्वयं को दिव्य प्रकाश बनाना ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। सगुण, निर्गुण, आकार, निराकार से परे महाशून्य में विश्वास करता है। और यही आदेश तत्व नाथ योगियों को दूसरे धर्म या सम्प्रदायों से अलग विशिष्ठ बनाता है। नाथ योगियों का मानना है की योग के अनुशाशनात्मक अभ्यास के बिना अध्यात्म के उच्चत्तम शिखर की प्राप्ति संभव नहीं है ।
"सन्मार्गश्चा योगमार्गः तदितरस्तु पाषण्डमार्गः "
श्री गोरखनाथ जी की जय हो
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