Sunday 24 December 2017

आगमशास्त्र में तांत्रिक साधना की सिद्धि

आगमशास्त्र में तांत्रिक साधना की सिद्धि के लिए पशुबलि के महत्त्व को रेखांकित किया गया है ।
नाथ सम्प्रदाय मे मांस मदिरा वर्जित है परन्तु अघोर साधुओं के लिए यह वर्जना नहीं है।

काली को तांत्रिक और अघोरी अपनी आराध्य देवी मानते हैं।
उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक व अघोरी मानवबलि दिया करते थे ।
आजकल साधना के अंत में साधक काली को बकरे की बलि देते हैं ।
शक्ति देवियों की आराधना तीन प्रकार से की जाती है
1-सात्विक,
2-राजस
3-तामस ।
निस्वार्थ और कामनारहित की जाने वाली आराधना सात्विक होती है ।
इसमें पशुबलि विधान नहीं है ।
राजस आराधना स्वार्थवश की जाती है । आराधक यश और संपन्नता की इच्छा से आराधान करता है । स्वार्थपूर्ति के लिए वह पशुबलि देने से भी नहीं हिचकता ।
वाममार्गी तांत्रिकों और अघोरियों में तामस आराधना का विधान है । आराधना के बाद देवी काली को पशुबलि और मदिरा चढाते हैं और स्वयं मांस और मदिरा का सेवन करते हैं ।
बलिदान को प्रमुख उपचार माना गया है जो अपने इष्टदेव की पूजा-अर्चना के कुल सोलह उपचारमे से एक है ।
ऐसी मान्यता है कि पूजा की समाप्ति पर यदि आराधक या साधक ने पशु बलिदान नहीं दिया तो पूजा निष्फल सिद्ध होगी, मनचाहा फल नही मिलता ।
बलिदान का बडा व्यापक अर्थ है ।
वेदों में बलिदान के महत्त्व पर बल दिया गया है ।
किंतु कालांतर में न जाने कैसे बलिदान का अर्थ संकुचित हो गया ।
यह दिग्भ्रमित धारणा जड पकड गई कि पशुबलि के बिना आराधक की आराधना अधूरी है ।
ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि जिन देवताओं को कल्याणकारी और करुणामय माना जाता है,
वे जीव की हत्या से ही प्रसन्न हो सकेंगे । हों, वामाचार व तंत्र साधना आदि में पशुबलि का विधान जरूर है, किंतु वह भी केवल विशेष अवसरों पर ।
सात्विक पूजा में पशुबलि सर्वथा निषिद्ध है ।
महाकाल संहिता में स्पष्ट लिखा गया है कि जो आराधक सात्विक आराधना करता है, वह बलिदान के लिए भूल से भी पशुहत्या नहीं करता ।
वह ईख, कूष्मांड (सीताफल), नीबू व अन्य वन्यफलों की बलि देता है या खीरपिंड, आटे अथवा चावल से पशु बनाकर बलि देता है ।


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