अमृतास्वादनं पश्चाज्जिव्हाग्रं संप्रवर्तते। रोमाँचश्च तथानन्दः प्रकर्षेणोपजायते-योग रसायनम् 255
जिव्हा में अमृत-सा सुस्वाद अनुभव होता है और रोमांच तथा आनन्द उत्पन्न होता है।
प्रथमं लवण पश्चात् क्षारं क्षीरोपमं ततः। द्राक्षारससमं पश्चात् सुधासारमयं ततः-योग रसायनम्
खेचरी मुद्रा के समय उस रस का स्वाद पहले लवण जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिर द्राक्षारस जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा, रस-सा अनुभव होता है।
आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्त कषायकम्। नवनीतं धृत क्षीर दधित क्रम धूनि च। द्राक्षा रसं च पीयूषं जप्यते रसनोदकम-पेरण्ड संहिता
खेचरी मुद्रा में जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, धृत, दूध, दही, द्राक्षारस, पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है।
अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात्। जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले-योग रसायनम्
भावनात्मक अमृतोपम स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है और वह रोग तथा जीर्णता से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है।
एक योग सूत्र में खेचरी मुद्रा से अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति का उल्लेख है-
तालु मूलोर्ध्वभागे महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद् अणिमादि सिद्धिः।
तालु के ऊर्ध्व भाग में महा ज्योति स्थित है, उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
ब्रह्मरन्ध्र साधना की खेचरी मुद्रा प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में शिव संहिता में इस प्रकार उल्लेख मिलता है-
ब्रह्मरंध्रे मनोदत्वा क्षणार्ध मदि तिष्ठति । सर्व पाप विनिर्युक्त स याति परमाँ गतिम्॥
अस्मिल्लीन मनोयस्य स योगी मयि लीयते। अणिमादि गुणान् भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः॥
एतद् रन्ध्रज्ञान मात्रेण मर्त्यः स्सारेऽस्मिन् बल्लभो के भवेत् सः। पपान् जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयेदद्भुतं वै॥
अर्थात्-ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी मुद्रा की साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है। पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है। इस साधना में मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन हो जाता है और अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है।
धेरण्ड संहिता में खेचरी मुद्रा का प्रतिफल इस प्रकार बताया गया है-
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैव लस्यं प्रजायते। न च रोगो जरा मृत्युर्देव देहः स जायते॥
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा, तृष्णा, आलस्य, रोग, जरा, मृत्यु का भय नहीं रहता।
लवण्यं च भवेद्गात्रे समाधि जयिते ध्रुवम। कपाल वक्त्र संयोगे रसना रस माप्नुयात-धेरण्ड
शरीर सौंदर्यवान बनता है। समाधि का आनन्द मिलता है। रसों की अनुभूति होती है। खेचरी मुद्रा का प्रकार श्रेयस्कर है।
ज्रामृत्युगदध्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले। ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यास प्रयोगतः॥ तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्वा समाश्रयेत्-योगकुन्डल्युपनिषद
जो महापुरुष ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास प्रयोग से इस जरा मृत्यु व्याधि-निवारक खेचरी विद्या को जानने वाला है, उसी गुरु के पास सर्वभाव से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए।
खेचरी मुद्रा से अनेकों शारीरिक, मानसिक, साँसारिक एवं आध्यात्मिक लाभों के उपलब्ध होने का शास्त्रों में वर्णन है। इससे सामान्य दीखने वाली इस महान् साधना का महत्त्व समझा जा सकता है। स्मरणीय इतना ही है कि इस मुद्रा के साथ साथ भाव सम्वेदनाओं की अनुभूति अधिकतम गहरी एवं श्रद्धा सिक्त होनी चाहिए।
No comments:
Post a Comment