Sunday, 17 December 2017

प्रभु की बनाई कृति इस काया

प्रभु की बनाई कृति इस काया को यदि बिना विकृत किये सुव्यवस्थित रुप से चलने दिया जाये तो सुन्दर स्वास्थ्य तो मिलता ही है, अभीष्ट आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति में भी सहायता मिलती है। सुरक्षा, सुसंचालन एवं सुनियोजित सहकार का सबसे बड़ा उदाहरण इस सृष्टि पर मानव शरीर है। साधारण से दैनिक जीवन के अवरोध, प्रतिकूलताएं हमें व्यथित उद्विग्न बना देते हैं। परंतु शरीर अपनी तितिक्षा शक्ति के सहारे मृत्यु जैसा संकट उत्पन्न होने पर भी अपनी जीवन रक्षा कर लेता है। इसे जीवनी शक्ति, जिजिविषा, वायटेलिटी, अन्तःबल, मोटिव फोर्स कुछ भी नाम दिया जाय, यह जटिल व्यवस्था मरते दम तक प्रतिकूलताओं से, आघातो-अवरोधों से हंस-हंसकर लोता लेती रहती है। सफल, समर्थ जीवन समस्त अड़चनों के बावजूद कैसे जिला जाय, यह शिक्षण सतत् देती रहती है।
अच्छी मशीन हो और अनगढ़ चलाने वाला, तो क्षण भर में उसे बर्वाद कर देता है। दुर्भाग्यवश मानव शरीर के साथ हर पल ऐसी ही दुर्घटना घटती रहती है। बीमारी इसी अनुचित हस्तक्षेप और अचानवश्यक तोड़-फोड़ के रुप में बरती जाने वाली उच्छृंखलता के बदले में प्रकृति द्वारा दिया गया दण्ड है। बीमारियाँ किस प्रकार आरम्भ होती हैं, इसके विस्तार में जब प्रवेश किया जाता है तो ज्ञान होता है कि जीवाणु-विषाणुओं को दोष देना र्व्यथ है। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे स्वयं का अपराध किसी और के मत्थे मढ़ देना।
मनुष्य एक मिनट में 18-20 बार साँस लेता है। प्रत्येक साँस के साथ 300 से लेकर 500 क्यविक सेण्टी मीटर हवा नाक की त्वचा द्वारा शुद्ध होकर 1 पोंड वजनी फेफड़ों में भर जाती है। फ्रफड़ों की सूक्ष्म इकाईयाँ है बुलबुलों के आकार के वायुकोष्ठ (एलावियोलाइ) जिनकी संख्या करीब 25 करोड़ होती है और उनकी दीवारों का बाहरी क्षेत्रफल साठ वर्ग मीटर होता है। साधारण साँस लेने वाला व्यक्ति जब 100 मीटर की लम्बी दौड़ में भाग लेता है तो एकसो अस्सी लीटर हवा श्वास के माध्यम से खींच सकता है। लचीले स्पंज जैसे ऊतकों के बने ये विलक्षण फेफडें परिस्थितियों के अनुसार आठ गुना तक फेल सकते हैं।
जब मनुष्य गहरी साँस अन्दर लेकर उसे पूरी ताकत से छोड़ता है तो इसे वायलट केपेसीटी कहते हैं। यह 5000 घन सेण्टी मीटर के बराबर होती है। फ्रंफड़ों की कार्यक्षमता जाँचने का यह एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण है।फेफड़ों के प्रति मिनट 10 बार सिकुड़ने, फैलने से बाहरी वायु मण्डल से आक्सीजन अन्दर खिंचती है और सूक्ष्म रक्तवाहिनियों की दीवाल में बने छिद्रों से रक्त में बैठे विकार द्रव्य जो पूरे शरीर के मेटाबालिज्म के अन्तिम अवशेष हैं, कार्बनडाय आक्साइड के रुप में रक्त से वायुकोष्ठकों के आकार श्वास से बाहर निकल जाते हैं। यह प्रक्रिया हर श्वास-प्रश्वास की अवधि में होती है। प्राण तत्व आक्सीजन एवं विकास द्रव्य कार्बनडाय आक्साईड के परस्पर विनिमय में दो बाधाएं हो सकती है।
पहला है वायु कोष्ठकों का पूरी तरह न फेलना दूसरा फेले वायुकोष्ठकों तक रक्त का न पहुँच पाना। पहली स्थिति में अशुद्ध रक्त आक्सीजन की तलाश में वायु कोष्ठकों तक पहुँच कर भी उसे नहीं ग्रहण कर पाना एवं वापस हृदय को भेज दिया जाता है। इससे धीरे-धीरे शरीर में प्राण तत्व की कमी होने लगती है। दूसरी स्थिति आक्सीजन को रक्त में मिलने-घुलने को तैयार है, पर वहाँ रक्त का दूर-दूर तक नामोनिशान न होने पर अथवा रक्तवाहिनियों के मार्ग में अवरोध आ जाने से यह नहीं हो पाता। फलतः असक्सीजन प्रश्वास द्वारा बाहर लौट जाती है। सामान्यतया पहली स्थिति ही अधिक गम्भीर है व वर्तमान में इस प्रतिपादन का केन्द्र बिन्दु है।
फेफड़ों में रक्त हृदय से पम्प किया जाता है। गुरुत्वाषर्ण की शक्ति के उल्टे वह फेफड़ों में बड़ी एवं छोटी तथा फिर उनसे भी छोटी कोशिकाओं में चढ़ता है। यह रक्त किसी प्रयोजन विशेष से हृदय भेजा गया होता है। अशुद्ध रक्त अपनी अशुद्धि से मुक्ति पाने तथा अपने साथ बाहरी वायुमण्डल का शुद्ध घटन आक्सीजन लेने आया होता है। हमारी साँस लेने की पद्धति उथली होने के कारण हम प्रति साँस में कुल 45-50 प्रतिशत वायु कोष्ठकों को खोल पाते हैं। झुकी छाती, उथली साँस, संकुचित पसलियाँ फ्रंफड़ों के ऊपरी एक तिहाई भाग को श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया से प्रभवित नहीं होने देते। फलतः बन्द अधखुले वायुकोष्ठकों तक इतनी ऊंचाई पर पहुँचा अशुद्ध रक्त निराश होकर वापस लौट जाता है। इसके दो दुष्परिणाम होते हैं। रक्त के साथ आये अथवा साँस से प्रवेशित आक्रमणकारी जीवाणु विषाणुओं को शरीर में प्रवेश करने का एक अच्छा माध्यम मिल जाता है। यहाँ आक्सीजन के अभाव में तमोगुण प्रधान ये असुर खूब बढ़ते, पनपते हैं। फ्रंफड़ों में होने वाले क्षय रोगों (टी.वी.) में इस स्थान का अनुपात 80 प्रतिशत होता है। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि यहाँ जीवाणुओं की आक्रामक शक्ति नहीं जीत पायी, वरन् शरीर ने ही अपनी विकृत कार्य-पद्धति से उन्हें घुसने का, पनपने का अवसर दिया। फ्रंफड़ों के बीच के एवं निचले भागों में रक्त प्रवाह एवं कोष्ठकों के फ्रलाव में संगति होने से वहाँ इन जीवाणुओं की चल नहीं पाती।
दूसरा प्रभाव यह पड़ता है कि ऐसा अशुद्ध रक्त जब बैरंग लौटता है तो रक्तवाहिनीयों की बनावट के कारण शुद्ध रक्त के साथ मिलकर पूरे शरीर की 6 अरब कोशिकाओं में वापस भेज दिया जाता है। बार-बार की इस प्रक्रिया के कारण शरीर में खाद्य-पदार्थों के जलने से बचे अवशिष्ट विकार द्रव्य एकत्र होते चले जाते हैं। जो मनुष्य में आलस्य, प्रमाद, मानसिक कमजोरी, अशक्ति तथा व्याधयों से लड़ने में असमर्थता को जन्म देते हैं। मानव द्वारा सहज रुप में अपना ली गयी यह श्वास-पद्धति रोगों के कारण को स्वयं में न ढूँढ़ कर बाहर खोजती है, जीवाणु को दोष देती है और फिर चिकित्सा के अनगिनत उपचारक्रमों को आमन्त्रित करती है। अनुदान रुप में किसी एक उपयुक्त शरीर शोधन पद्धति के दुरुपयोग का मात्र यह एक छोटा-सा उदाहरण है। फ्रंफड़ों की टी.बी. एवं फ्रंफड़ों का कैंसर अधिकतर इसी क्षेत्र में होता है। अपराधी, चोर, लुटेरे घनी अंधररी उपेक्षित जगहों में ही प्रश्रय पाते हैं। ऐसे ही स्थानों पर उन्हें पनपने, उच्छृंखलता बरतने की छूट मिल पाती है। चाहे वह क्षय रोग का वृण हो अथवा कैंसर के उद्दण्ड कोष श्वास प्रक्रिया के दुरुपयोग के ही दुष्परिणाम है, यह आज के विख्यात चिकित्सकों की मान्यता है।
मानव शरीर का दूसरा महत्वपूर्ण अंग है पाचन संस्थान। आज अधिकाँश रोगी इसी व्यवस्था के सम्बन्धि पाये जाते हैं। अपच, मन्दाग्नि, अम्लपित्त, मधुमेह के शिकार ये रोगी घुटन भरा जीवन जीते हैं। सामने खाद्य-पदार्थ होते हुए भी खा पाने में असमर्थता अपनी ही करनी का प्रकृत द्वारा दिया गया दण्ड है। सामान्यतया भोजन भूख लगने पर ही लिया जाता है। शरीर जब इसकी आवश्यकता अनुभव करता है तब स्नायुओं द्वारा डाइवोथेलेम को संदेश पहुँचता है। वहाँ से उठने वाले विद्युत्प्रवाहों का परिणाम यह होता है कि डेढ़ लीटर की क्षमता वाले आमाशय में आकुचन-प्रकुँचन आरम्भ हो जाता है। इसे ही पेट में चूहे दौड़ना कहते हैं। इस में सबसे बड़ा योगदान भोज्य पदार्थ के स्वरुप वं सुगध का रहता है जिसे फ्लेवर एवं पेलेटेबिलिटी कहा जाता है। पाचक रसों का स्राव भोजन के प्रति सहज आकर्षण जुड़ जुड़ जाने से और भी तेजी से होने लगता है।
आमाशय का पत्तों में साढे तीन करोड़ पाचक रस बनाने वाली ग्रन्थियाँ होती हैं जो करीब 2 से लेकर ढ़ाई लीटर रस एक दिन में बनाकर रख देती है। इसमें मुख्य होता है हाइड्राक्लोरिक एसिड (अम्ल) एवं एक इन्जाइम पेप्सिन। ये दोनों मिलकर भोजन को छोटी-छोटी इकाइयों अमीनों एसिड में तोड़ना आरम्भ करती है। धीरे-धीरे आमाशय से खिसकता हुआ यह अर्ध ठोस पदार्थ छोटी आँत में पहुँचता है। यदि आमाशय का वातावरण अम्लीकृत है तो इसके विपरीत छोटी आँत का सर्व प्रथम भाग ड्यूडनम क्षारयुक्त वातावरण बनाये रखता है। जब भी भोजन असमय में बिना पूरी तरह से चे ड्यूडनम में धकेल दिया जाता है तो थोड़ा-सा अम्ल भी उसके साथ प्रवेश कर जाता है। यह सर्वविदित है - तेज अम्ल किसी भी ठोस वस्तु को गला सकते हैं। प्रारम्भ में तो ड्यूडनम की दीवाले अपने क्षार से इसे प्रभावशाली नहीं होने देतीं। पर जब मनुष्य की बार-बार कुछ तो उत्तेजक आहार लेने की आदत अम्ल का स्राव भी बढ़ाने लगती है एवं उसे भोजन के साथ ड्यूडनम में भेजने लगती है तो उसका दीवालों में छाले पड़ने लगते हैं। इसी स्थिति को पेष्टिक अल्सर सिण्ड्रोम कहा जाता है। अम्लपित्त से आरम्भ हुआ यह रोग अन्ततः कष्टकर ही सिद्ध होता है। कुछ ऐसी ही स्थिति तनाव्रस्त व्यक्तियों में भी होती है जिनके स्नायु अचेतन में भी सक्रिय होते हैं एवं अन्ततः अत्यधिक स्राव द्वारा कोमल दीवालों को गलाकर ही छोड़ते हैं।
जब आधा पचा भोजन थोड़ा आगे बढ़ता है तो इसका सामना पित्ताशय की थैली से निकले पित्त, लीवर के पाचक रसों एवं पक्वाशय (अग्न्याशय) के रसों से होता है। इनका कार्य होता है आमाशय से आगे भोजन को और भी छोटी इकाइयों में विभक्त कर आँतों की दीवालों से सीधे रक्त परिवहन में पहुँचना देना, जहाँ से वे अपने गन्तव्य को चली जाती है।
किसी भी बारीकी का काम करने वाले कारीगर से यदि मजदूर का काम लिया जाये तो यह उसका दुरुपयोग ही हुआ। आधे पचे हुए भोजन की बड़ी यूनिटों को छोटी इकाईयों में बाँटना मजदूर द्वारा रोड़ी तोड़ने के समान है। जब यह काम भी लीवर, पैन्क्रियाज (पक्वाशय) तथा गाँलब्लैडर (पित्ताशय) को करना होता है तो उनकी पाचन क्षमता एवं स्वयं की कार्य-पद्धति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। बार-बार इनकी यही स्थूल भूमिका आरम्भ हो जाने से जो दबाव इन पर पड़ता है उसका परिणाम अनेकानेक व्याधियों के रुप में निकलता है। यह वस्तुतः एक सुनियोजित व्यवस्था तंत्र का जान-बूझकर किया गया दुरुपयोग है जो जीवर के कमजोर होने, अग्निमन्दता, अपच, मानएब्जार्पशन सिण्ड्रोम जैसी जानलेवा व्याधियों के रुप में प्रकट होता है। जो हितकर रुचिकर आहार को समय-समय का ध्यान करके ही ग्रहण करता है, अपनी पाचन प्रक्रिया के रसस्रावों का दुरुपयोग नहीं होने देता, वह अपनी जीवन यात्रा को सुचारु रुप से चलाता है। ऐसे व्यक्ति शान से जीते हैं, सफल सार्थक जीवन जीते हैं।
विवेकशील उसी को कहते हैं जो अपने अस्त-व्यत क्रम को समय रहते सुधार लेता है। समस्त सम्भावनाओं के जागरण की कुन्जी अन्दर ही है। सृजेता ने इस काया को कुछ ऐसा रचा है कि सब कुछ अन्दर सुव्यवस्थित बना रहे। एक रास्ता बन्द हो तो दूसरा खुल जाता है। सामंजस्य एवं तालमेल की सम्भावनाएं यहाँ असीम हैं। मनुष्य अपनी आदतों को विकृत की ओर से मोड़ें तो वे स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। मानव शरीर की रचना और कायै पद्धति यही सन्देश देते हैं कि इन अनुदानों का पूरा सदुपयोग किया जाना चाहिए।
साँस के माध्यम से प्राण तत्व को अन्दर खींचना एवं मुँह के माध्यम से आहार ग्रहण करना जीवन की दो अनिवार्यताएं हैं। इन दो के बिना जीवन सम्भव नहीं है। इनसे जुड़ी अस्त-व्यस्ताताओं को यदि क्रमबद्ध प्राकृतिक जीवन के अनुकूल बना लिया जाय तो जीने का सही आनन्द लिया जा सकता है। सही ढंग से गहरी ली गई श्वास एवं समय पर लिया गया उपयुक्त आहार स्वस्थ समुन्नत होने की दो प्रमुख शर्तें है। विलक्षण शरीर की गाथा यही रहस्योद्घाटन करती है।


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