Friday, 15 December 2017

प्रेम का आरम्भ होता है, अन्त नहीं

प्रेम का आरम्भ होता है, अन्त नहीं
प्रेम का आरम्भ होता है- अन्त नहीं। क्योंकि उससे प्रवृत्ति मिलती है न उसकी पूर्ति होती है। इसी से प्रेम को नित्य कहा जाता है और अनन्त। वासना की तृप्ति, रोगों की प्रचुरता से हो सकती है। भले ही वह कुछ समय उपराम के रूप में क्यों न हो। आग पर घी की मात्रा अत्याधिक डाल दी जाय तो वह कुछ समय के लिए तो अन्त होती दीखती है इसी प्रकार वासना, लिप्सा, तृष्णा, बैर, मोह का समाधान अभीष्ट वस्तु या व्यक्ति प्राप्त हो जाने पर सम्भव है, भले ही वह कुछ समय के लिए ही क्यों न हो। कुछ समय की बात इसलिए की जा रही है कि संसार की समस्त वस्तुएं जिनमें काया भी गिनी जा सकती है विकारी है। उनमें रुचिकर लगने वाले तत्वों से अरुचिकर लगने वाले तत्वों की मात्रा कम नहीं अधिक होती है।
सत् और तम से मिलकर यह संसार बना है। रज वे इन दोनों का सम्मिश्रण है जो हमें दीखता है। वस्तुतः रज की कोई पृथक सत्ता नहीं है। सुर और असुर के-शुभ और अशुभ के-भगवान् और शैतान के संग का सम्मिश्रित स्वरूप मनुष्य है, इसलिए उसमें जितनी श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है उतनी ही निकृष्टता विद्यमान है। इसी से मनुष्य को अपूर्ण कहा जाता है। इस संसार में कोई जीवधारी पूर्ण नहीं है। पूर्णता प्राप्त करने पर काया धारण करने की, जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। पूर्ण पुरुष बिना काया के भी-सूक्ष्म शरीर के द्वारा सूक्ष्म जगत की हलचलें उत्पन्न करके वह काम कर सकते हैं जो देहधारियों द्वारा सम्भव नहीं होते। लोक शिक्षण के लिए-जनता का मार्गदर्शन करने के लिए कोई देहधारी देवदूत भेजे जायें और वे प्रभु का कार्य पूरा करने के लिए लीलाएं प्रस्तुत करें यह बात दूसरी है। ऐसे अपवादों को छोड़कर आमतौर से मनुष्यों में अपूर्णता का, विकारों का--त्रुटियों का बहुत बड़ा अंश पाया जाता है।
यही बात वस्तुओं के बारे में भी है, वे न मिलने तक बड़ी आकर्षक लगती हैं क्योंकि तब तक उनका एक पक्ष-आकर्षण के रूप में ही दीखता रहता है।जब समीप आते हैं और वे उन पदार्थों की प्राप्ति के साथ ही जो साज-संभाल, सुरक्षा, उपयोग, उपभोग आदि की जिम्मेदारियाँ कन्धों पर आती हैं, दोष दृष्टि में आते हैं उनके कारण सारा आनन्द ही चला जाता है। गरीबों को अमीरी प्राप्त करने की बड़ी अभिलाषा रहती है, पर अमीरों को अंतर्द्वंद्वों से बेतरह उद्विग्न देखा गया है उनमें से कितने ही आत्महत्या करते तथा विरक्त होते देखे गये हैं। साँसारिक वस्तुओं में यही विशेषता है कि जब तक वे दूर रहती हैं तब तक प्रिय लगती हैं और वे जैसे ही जितनी ही समीप आती हैं उतना ही आकर्षण खो बैठती हैं। विवाह होने से पूर्व प्रेमिका या मंगेतर जितनी सुहावनी-आकर्षक लगती हैं, विवाह होने के बाद पत्नी बन जाने पर वह आकर्षण चला जाता है। दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा कितने सुन्दर लगते हैं पर यदि उनके समीप पहुँचा जाय तो मुसीबत ही खड़ी हो जायगी। सूर्य की प्रचण्ड ज्वाला और चंद्रमा की वायु रहित अनियंत्रित शीत ताप वाली स्थिति में किसी को एक क्षण भी ठहरना न भायेगा।
लिप्सा, तृष्णा और वासना जो आमतौर से प्रेम का आवरण ओढ़कर हमारे सामने आती है, यही झंझट उत्पन्न करती है। जिस पदार्थ की आज बहुत उत्कण्ठा थी वह मिल जाने के बाद अरुचिकर बन जाता है। यही कारण है कि न तो भोग से तृप्ति होती है और न भोग्य पदार्थों की एकरूपता से। एक ही मिठाई कोई बहुत दिनों तक नहीं खाना चाहेगा। भोजन में रोज नये-नये पदार्थ बदलने की आकाँक्षा के पीछे, यही रहस्य छिपा हुआ है कि जिस पदार्थ को जितना आकर्षक समझा गया था, मिलने के बाद उसका आकर्षण चला गया। नित नये भोजन-व्यंजन पाने की इच्छा के पीछे यही मर्म छिपा पड़ा है कि न मिलने तक वस्तु के गुण ही गुण दीखते हैं पर जब उसको प्राप्तकर लिया जाता है तो दोष भी सामने आते हैं। अथवा यों कहिये कि अपनी कल्पना का नशा वस्तु स्थिति समझने के बाद नीचे उतर आता है। यह बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। आज जो खेल देखा था उसे कल देखने की इच्छा नहीं होती। आज जो गीत सुना कल वह फीका लगता है। व्यभिचारी की काम-वासना भी नई-नई आकृति के भोग्य व्यक्ति ढूंढ़ती है। पुरुषों को नई स्त्रियाँ और स्त्रियों को नये पुरुषों में रति रहती है। इसी से कहा जात है कि वस्तुओं और व्यक्तियों का आकर्षण-भले ही प्रेम नाम से पुकारा जाय, वस्तुतः वह लोभी और मोह का भावुकता भरा सम्मिश्रण ही है इसे इसे कोई प्रेम समझे तो समझता रहे। पर वास्तविकता से वह दूर ही है।


No comments:

Post a Comment