Friday, 15 December 2017

प्राण तत्त्व kundlani shakti

प्राण तत्त्व एक है वही ब्रह्माण्ड में व्यापक रूप से संव्याप्त है और ब्रह्माग्नि कहा जाता है। वही पिण्ड सत्ता में समाया हुआ है और आत्माग्नि कहलाता है। इस प्रकार एक होते हुए भी विस्तार भेद से उसके दो रूप बन गये। आत्माग्नि लघु है और ब्रह्माग्नि विभु। तालाब में जब वर्षा का विपुल जल भरता है तो वह परिपूर्ण हो जाता है। यह अनुदान न मिलने पर तालाब सूखता और घटता जाता है। पानी में मलीनता भी आ जाती है। जिस प्रकार तालाब को भरा-पूरा और स्वच्छ रखने के लिए नये वर्षा जल की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आत्माग्नि में ब्रह्माग्नि का अनुदान पहुँचाना पड़ता है इसी का नाम प्राणायाम ।
यों गहरी साँस लेकर फेफड़े के व्यायाम को भी आरोग्यवर्धक प्राणायाम कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसकी उपयोगिता तथा विधि व्यवस्था बताई जाती है साथ ही महिमा का गुण-गान भी किया जाता है। इससे अधिक आक्सीजन मिलती है और श्वास यन्त्रों का व्यायाम होता है, पर अध्यात्म शास्त्र का योग प्राणायाम उससे भिन्न है। उसमें ब्रह्माण्ड व्यापी प्राण की अभीष्ट सफलताओं और आत्मिक विभूतियों के समस्त अवरुद्ध मार्ग खुल जाते हैं
ब्रह्म-प्राण को आत्म-प्राण के साथ संयुक्त करने के लिए जहाँ जीवन-क्रम में शालीनता एवं उदारता की सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक समावेश करने का प्रयास करना होता है वहाँ उपासनात्मक उपक्रमों को अपनाना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आहार-विहार से स्वास्थ्य वृद्धि होती है साथ ही दुर्बलता और रुग्णता को निरस्त करने के लिए विशेष चिकित्सा उपचार एवं व्यायाम आदि भी अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। प्राण शक्ति के अभिवर्धन में -कुण्डलिनी जागरण में सूर्य वेधन जैसे प्राणायामों की भी आवश्यकता होती है। योगशास्त्र में व्यक्ति-प्राण और ब्रह्म-प्राण के सम्बन्ध और समन्वय की चर्चा इस प्रकार की है-
प्राणा वै द्विदेवत्याः एक मात्रा गृह्यतें तस्मात् प्राणा एक नामात्ता द्विमात्र हूयन्ते तस्मात्प्राण द्वन्द्वम्-एते 2।27
प्राण एक है। पर वह दो देवताओं में -दो पात्रों में भरा हुआ है।
अगर्भश्च सगर्भश्च प्राणायामों द्विधा स्मृतः ।
जपं ध्यानं विनागर्भः सगर्भस्तत्समन्वयात्-शिव पुराण
“प्राणायाम अगर्भ और सगर्भ दो प्रकार का होता है। जप और ध्यान से युक्त प्राणायाम सगर्भ होता है और इनके बिना अगर्भ कहा जाता है।”
तत्साधनं द्वयं मुख्यं सरस्वत्यास्तु चालनम्।
प्राणरोधमाधाभ्यासाहज्वी कुण्डलिनी भवेत्-योग कुण्डल्युपनिषद् 1।8
उसके दो साधन मुख्य हैं- (1) सरस्वती (सुषुम्ना) का चालन (2) प्राणरोध । अभ्यास से यह कुण्डली मारे बैठी कुण्डलिनी सीधी हो जाती है।
आध्यात्मिक प्राणायाम वे हैं जिनमें ब्रह्माण्डीय चेतना को जीव चेतना में सम्मिश्रित करके जीव सत्ता का अन्तःतेजस जागृत किया जाता है। कुण्डलिनी साधना में इसी स्तर के प्राणयोग की आवश्यकता रहती हैं सूर्य-वेधन इसी स्तर का है। उसमें ध्यान धारणा अधिकाधिक गहरी होनी चाहिए ओर प्रचण्ड संकल्प शक्ति का पूरा समावेश रहना चाहिए। श्वास खीचते समय महाप्राण को विश्वप्राण को-पकड़ने और घसीट कर आत्मसत्ता के समीप लाने का प्रयत्न किया जाता है। श्वास के साथ प्राण तत्त्व की अधिकाधिक मात्रा रहने की भाव-भरी मान्यता रहनी चाहिए। साँस में आक्सीजन की जितनी अधिक मात्रा होती है उतनी ही उसे आरोग्यवर्धक माना जाता है। आक्सीजन की न्यूनाधिक मात्रा का होना क्षेत्रीय प्रकृति परिस्थितियों पर निर्भर है। किन्तु प्राण तो सर्वत्र समान रूप में संव्याप्त है। उसमें से अभीष्ट मात्रा संकल्प शक्ति के आधार पर उपलब्ध की जा सकती है। सूक्ष्म जगत में -अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा को ही सबसे प्रबल और फलदायक माना गया है। साधनात्मक कर्मकाण्डों का फल परिपूर्ण मिलना न मिलना अथवा स्वल्प मिलना कर्मकाण्डों के विधि-विधानों पर नहीं साधक की श्रद्धा पर निर्भर रहता है। श्रद्धा की न्यूनता ही साधनाओं के निष्फल जाने का प्रधान कारण होता है। जो इसे सुनिश्चित तथ्य को जानते हैं वे सभी साधना उपचारों में गहनतम श्रद्धा का समावेश करने के लिए प्रचण्ड संकल्प शक्ति का उपयोग करते हैं।
साँस खीचते समय प्राण ऊर्जा का वायु के साथ प्रचुर मात्रा में समावेश होना, उसका सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करना- सुषुम्ना (मेरुदंड) मार्ग से इड़ा धारा (बाम भाग के ऋण विद्युतीय शक्ति प्रवाह) द्वारा मूलाधार तक पहुँचना -वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरना, थपथपाना जागृत करना यह सूर्य-वेधन प्राणायाम पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध में प्राण को पिंगला मार्ग से (मेरुदंड से दक्षिण भाग के धन विद्युत प्रवाह) में होकर वापिस लाया जाता है। जाते समय का अन्तरिक्षीय प्राण शीतल होता है, ऋण धारा भी शीतल मानी जाती है इसलिए इड़ा को -पूरक को चन्द्रवत् कहा गया है। चन्द्रनाड़ी कहने से यही प्रयोजन है।


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