Friday 15 December 2017

सुकरात कहते थे कि- सबसे बड़ा ज्ञान है-अपने को पहचानना

सुकरात कहते थे कि- सबसे बड़ा ज्ञान है-अपने को पहचानना।” हम बहुत कुछ जानते हैं पर अपने बारे में अनजान ही बने हुए हैं। अपने स्वरूप और लक्ष्य को भूलकर सचमुच हम अज्ञानग्रस्त रहते हैं और भवबंधनों में बँधते हैं। हमें किस तरह सोचना, रहना और करना चाहिए यदि इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लें- तद्नुरूप आचरण करें तो समझना चाहिए कि आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया और जीवन को सार्थक बनाने वाला मार्ग अपना लिया।
यूनान के स्तोइक दर्शन के अनुसार भी ब्रह्म एवं जगत दो भिन्न सत्ता नहीं है। यह संसार ब्रह्म का सजीव शरीर है। सृष्टि में संव्याप्त शक्ति एवं चेतना का बीज यह सर्वव्यापक ब्रह्म सत्ता ही है। स्तोइक दार्शनिक एपिकतेतु ने प्राणि मात्र में ईश्वर का प्रकृति अंश विद्यमान् प्रतिपादित किया है और विश्व बंधुत्व पर जोर देते हुए मानव मात्र को एक पिता की संतान भाई-भाई के रूप में माना है।
अद्वैतवाद के व्याख्याता आद्य शंकराचार्य ने वेदांत की संक्षिप्त व्याख्या इन शब्दों में की है- मनुष्य को सर्वप्रथम अपने में ब्रह्म चेतना की अनुभूति करनी चाहिए, तदुपरान्त जड़ चेतन जगत में अपनी ही आत्मा का विस्तार अनुभव करना चाहिए। एक ह आत्मा को सबमें संव्याप्त की दृढ़ अनुभूति होने पर अपने पराये का भेद कहाँ संभव है?
भौतिक जगत में आर्थिक, जातीय, सामाजिक राजनैतिक एवं बौद्धिक आधार पर ही समता एकता स्थापित करने के प्रयत्न चलते रहते हैं।
गीता कहती है-
महात्मा गाँधी तब वर्धा में थे। आश्रम का नियम था कि हर किसी को अपने जूठे बर्तन स्वयं माँजने थे। मात्र मेहमानों को ही थाली छोड़ने की छूट थी पर प्रायः होता यह था कि सभी आगन्तुक भी अपने-अपने बर्तन साफ कर देते थे।
एक बार हिंदी साहित्य परिषद के कई सदस्य आये हुए थे। भोजन के उपरांत और सब लोगों ने तो अपनी थालियाँ साफ कर दी पर एक सज्जन ने जूठी थाली वहीं छोड़ दी। उसे कौन धोये? अभी सब ताक ही रहे थे कि महादेव भाई ने लपक कर थाली उठाई और हाथों हाथ धो डाली। गाँधी जी को किसी ने यह बात बताई तो वे बोले मेरे पास रहने का इतना प्रभाव तो पड़ना ही चाहिए।
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो विजुगुप्सते॥
यस्मिन सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः।
तत्रः को मोहः शोकः एकत्वमनुपश्यतः॥
जो सब जीवों में अपनी ही आत्मा देखता है तथा किसी भी जीव के प्रति जुगुप्सा, निंदा, द्वेष आदि का भाव ही नहीं रह पाता।
‘समस्त जीवों में एक ही आत्मा समाया हुआ है, ऐसा जानकर जिस ज्ञानी पुरुष के लिए समस्त संसार अपना ह स्वरूप आत्मस्वरूप-हो जाता है, उस एक आत्मतत्त्व का अनुभव करने ले को किसका भय, किसका मोह, किसके लिए शोक होगा?
विद्या विनय सम्पने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव शवपाके च पंडिताः समदर्शिनः॥
‘अर्जुन! जो व्यक्ति ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते, चाँडाल आदि सभी जीवों में एक ही आत्मतत्त्व का दर्शन करता है, वही पंडित है।’
अद्वैतवाद को दूसरे शब्दों में एकात्मवाद-एक जीववाद’ कहा जा सकता है, भेद-भाव मिटाकर एकता उत्पन्न करने की प्रेरणा वेदांत सिद्धांत की है। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो ऊँच-नीच नर-नारी धनी-विभेद फैले हुए हैं उन्हें हटाने और सर्वजनीन एकता समता स्थापित करने के लिए वेदांत प्रतिपादित एकान्तवाद का-अद्वैतवाद का ही विस्तार करना पड़ेगा। उसमें ईश्वर और जीव के बीच का ही भेद-भाव नहीं मिटाया गया है वरन् प्राणियों के बीच जो विभेद की दीवारें हैं उन्हें भी गिराया गया है।
‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की वेदांत आस्था मनुष्य में दया, करुणा, स्नेह, सद्भाव, सौजन्य का उदर कर सकती है। नागरिकता, सामाजिकता का विकास ममता और आत्मीयता के साथ जुड़ा हुआ है। इस भावना का जितना अधिक विकास होगा उतनी ही व्यक्ति की महानता बढ़ेगी और समाज की शांति, समृद्धि एवं सुस्थिरता में अभिवृद्धि होगी। अपने पास आत्मीयता का पारस हो तो हर लोहे जैसी कलूटी और अल्प मूल्य वस्तु को -व्यक्ति को -सोने जैसा सुंदर और बहुमूल्य स्तर का बनाया जा सकता है।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ स्नेह, सौजन्य का व्यवहार वहीं तक कर सकता है जहाँ तक कि उसकी ममता का प्रकाश फैल रहा हो। “आत्मोपम्येन न सर्वत्र सम पश्यति योऽर्जुन” की मनःस्थिति वाला व्यक्ति ही दूसरों के सुख में अपने सुख की अनुभूति कर सकता है। ऐसी मनोभूमि में ही कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में लोकसेवी, परमार्थ परायण, उदार, सज्जन बन सकता है। संयम और त्याग की आकांक्षा ऐसी ही मनःस्थिति में बन पड़ेगी।
उपनिषद् ने कहा- द्वितीया द्वै भयं भवति’ अर्थात् दूसरे से ही भय होता है। संसार में -परमेश्वर से यदि अपनी आत्मीयता समाविष्ट कर ली जाय तो जैसे ही परायापन मिटेगा वैसे ही ‘अभय’ का आनंद मिलता बढ़ता चला जायेगा।
जीवन का सबसे बड़ा रस प्रेम है। विभिन्न व्यक्ति या पदार्थ तभी प्रिय लगते हैं जब उनसे प्रेम होता है। उदासीनता या उपेक्षा जहाँ भी होगी वहाँ सूनेपन का -निरर्थकता का-अनुभव होगा, जिस वस्तु से भी आत्मीयता हट जायेगी वही नीरस, निष्प्राण लगने लगेगी। प्रिय न कोई पदार्थ है न व्यक्ति, अपना आपा ही सबको प्रिय है। वह जहाँ कहीं-जिस किसी पर भी प्रतिबिम्बित होता है। वही सुंदर, सुखद और प्रिय लगने लगता है। यदि सर्वत्र प्रिय पात्रों से भरी दूरियाँ दीखती हो तो उसका एक ही उपाय है कि आत्मीयता के- प्रेम भावना को अधिकाधिक व्यापक, विस्तृत किया जाय। यह आत्म विस्तार न केवल वैयक्तिक आनन्दानुभूति अभिवर्धन की दृष्टि से भी आवश्यक है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अंतर्राष्ट्रीय शांति, समृद्धि सिद्धांत व्यक्तिगत प्रेम भावनाओं के विस्तार पर ही निर्भर है।
मनुष्य के विकास की सर्वोच्च अवस्था वह , जहाँ “उसके सभी संदेह तथा वासनायें ‘सदैव के लिए नष्ट हो जाती है, हृदय की समस्त स्वार्थपूर्ण ग्रंथियाँ खुल जाती हैं तथा कारण-कार्य का-अनंत क्रम उसके लिये समाप्त हो जाता है।”
मुंडकोपनिषद् 21218 में ऋषि ने इसी स्थिति का दिग्दर्शन इस प्रकार कराया है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते यास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥
इस ब्रह्म चेतना से परिपूर्ण जीवन मुक्ति स्थिति को प्राप्त करने में अस्तित्व के अंत का भय करना निरर्थक है, वस्तुतः वह तो पूर्ण अभय की स्थिति है। डर तो दूसरे से होता है जहाँ केवल अपना ह आपा बिखरा पड़ा हो वहाँ। भयभीत होने या आशंका करने की कोई गुँजाइश नहीं है।


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