Friday 15 December 2017

अपने को जानें


दुःख, दारिद्रय, शोक, सन्ताप और अभाव, उद्वेग का निवारण करने के लिए इन अनात्म तत्वों की अन्तरंग में जमी हुई जड़ों को खोदना पड़ेगा। भीतर का दीपक जलने पर ही बाहर फैले अन्धकार का समाधान होगा। जो कुछ हमारे लिए अभीष्ट और आवश्यक है उसकी समस्त संभावनाएं अपने भीतर सुरक्षित रखी हुई हैं आवश्यकता उन्हें प्रयोग करने की है। अपने आपे का प्रयोग करना यदि हमें आया होता तो हम दूसरे ईश्वर बन सकने में समर्थ होते। अपने को खोकर हमने खोया ही खोया है। बाहर ढूँढ़ने में जीवन गँवा डाला, पर मिला कुछ नहीं, मिलता तब जब बाहर कुछ होता।
अनात्म तत्वों की जो गन्दगी भीतर भर गई है उसे निकाल दे तो शेष वही रह जाता है जो हमारा स्वरूप है। कुछ पाने के लिए कुछ खोने के लिए तप साधन किये जाते हैं। आत्मा तो स्वयं उपलब्ध ही है। उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है। करने की बात इतनी ही है कि जो अनुपयुक्त और अवाँछनीय अपने भीतर भर लिया है उसे निकाल कर फेंक दें। यह परिशोध नहीं उपलब्धि का निमित्त बन जाता है।
किसी तत्ववेत्ता से जिज्ञासु ने पूछा- गुरुदेव, तप साधना से आपने क्या पाया ? उन्होंने उत्तर दिया-खोया बहुत पाया कुछ नहीं। जिज्ञासु ने आश्चर्य से पूछा-ऐसा क्यों ? ज्ञानी ने कहा-जो पाने लायक था वह तो पहले से ही प्राप्त था। जो खोने लायक विषय, विकार और अज्ञान, अन्धकार के अनात्म तत्व भीतर घुस पड़े थे, उन्हें साधना से निकाला भर है। इस तरह साधक-साधना में खोता ही खोता है पाता कुछ नहीं हम स्वप्न खोते हैं तब सत्य पाते हैं।
रोवर गोडंल ने अपनी पुस्तक ‘दी कन्टेन्योटेरी साइन्सेज एण्ड दी लिवरेटिव एक्पीरियेन्स ऑफ योग’ में लिखा है-’मनुष्य के यह जानने से पहले कि वह वास्तव में क्या है, अब तक के जाने हुए को भूलना होगा। वर्तमान नकारात्मक मान्यताओं के कारण मानव अपने भीतर स्थूल अहंवाद के साथ जुड़ी हुई मिथ्या मान्यताओं से ही परिचित हो पाया है। आत्मिक प्रगति के लिए हमें आत्म-बोध का प्रशिक्षण आरम्भ से ही करना होगा। क्योंकि उन तथ्यों को जिन पर आत्मोन्नति निर्भर है एक प्रकार से हमने भुला ही दिया है।’
कालीदास ने कहा है-अपने को जानने का प्रयत्न करो। अपने स्वरूप को समझो और जिस लिये जन्मे हो उस पर विचार करो। तुम्हें दिशा मिलेगी और सही दिशा में कदम उठ गये तो वह प्राप्त करके रहोगे जिसके पाये बिना अपूर्णता और तृप्ति घेरे ही रहेगी।
स्वामी विवेकानन्द ने एक कथा सुनाई-’एक तत्व ज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, संध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है जिससे डरकर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं। सिंह चिन्ता में डूब गया और उसे संध्या का डर सताने लगा।
पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूँढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़बड़ाहट सुनाई दी समझा गधा है। सो लाठी से उसे पीटने लगा-धूर्त यहाँ छिपकर बैठा है। सिंह की पीठ पर लाठियाँ पड़ी तो उसने समझा यही संध्या है सो डर के थर-थर काँपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लाद कर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा- यह क्या हुआ ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो। सिंह ने कहा-संध्या के चंगुल में फँस गये हैं वह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है।”
सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं उसकी भ्रान्ति थी जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देव दानव समझ लिया गया और उसका भार एवं प्रहार सिर हिलाये स्वीकार कर लिया गया। हमारी यही स्थिति है अपने वास्तविक रूप को न समझने और संसार के साथ-जड़ पदार्थों के साथ अपने सम्बन्धों का ठीक तरह से तालमेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है जिनमें अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रान्ति को ही माया कहा गया है माया को ही बन्धन कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।
गीता में माया की व्याख्या और प्रतिक्रिया समझाते हुए भगवान ने कहा है।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तः।
ज्ञान अज्ञान के द्वारा ढक दिया गया है, इस कारण वह प्राणी मोह को प्राप्त होते हैं।
नाह प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः।
अपनी योगमाया से ढके हुए होने के कारण मैं सबके लिये दृश्य नहीं हूं।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
तीन गुणों से युक्त इस मेरी माया को पार करना बड़ा कठिन है।
शरीर को आत्म समझ बैठने-शरीर के सुख-दुःख, हानि-लाभ और संयोग-वियोग को आत्मा पर घटित हुई मान लेने से मनुष्य दुःखी होता है, उपलब्धियों की अपेक्षा यदि अपना ध्यान आत्मा के निर्मल निर्विकार स्वरूप में बना रहे और जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कर्त्तव्य कर्मों को करते रहने एवं दिव्य विचारों में रमण करने की प्रवृत्ति अपना ली जाय तो न दुःख की गुँजाइश रहे न शोक की। अपने को आत्मा बना इस संसार को परमेश्वर का स्वरूप मानकर परमात्मा के लिए आत्मा द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले अनुदानों-कर्त्तव्य कर्मों को अपनाते हुए जीवन यात्रा पूरी करने लगे तो सारे दुःख दूर हो जायें जिन्हें अज्ञता के कारण मायाबद्ध जीव पग-पग पर भुगतता रहता है।



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