Friday, 15 December 2017

bhajan kirtan bhajan kirtan

कल का शैष भाग...
भजन का उत्तरार्ध यह है कि उस सर्व शक्तिमान्- सर्व वैभववान्-सर्व उत्कृष्टताओं से संपन्न-सर्वाधिक प्रेमी परमेश्वर को अपनी सत्ता में प्रविष्ट होते हुए- घुलते हुए अनुभव किया जाय। ब्रह्माण्ड व्यापारी दिव्य प्रकाश को सागर में अपने आपको मछली की तरह निमग्न अनुभव किया जाय। जिस प्रकार मिट्टी के ऊपर जल गिरने से दोनों के मिश्रण का एक नया रूप “कीचड़” बनता है वैसे ही भावना की जानी चाहिए कि परम प्रकाश अपने रोम-रोम में संव्याप्त हो रहा है। (1)शरीर के अंग प्रत्यंग में विष संयम एवं बलिष्ठता का रूप धारण कर रहा है। (2) मस्तिष्क में विवेक और प्रखर प्रतिभा-परख तेजस् बनकर बिखर रहा है। अंतरात्मा के हृदय संस्थान में वह देवत्व और आनंद रूप बना बैठा है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और तीनों शरीरों में परमात्मा की परम ज्योति को ज्वलंत अग्नि की तरह समाविष्ट देखना अपने को उस आलोक से आलोकित अनुभव करना भजन साधना की प्रधान ध्यान विद्या है।
इस संयोग की वेला में आनन्दानुभूति उठानी चाहिए। माता पुत्र का -प्रेमी प्रेयसी का मिलन जितना सुखद होता है उससे भी अधिक तृप्तिदायक यह आत्म परमात्म मिलन है। इस मिलन की प्रतिक्रिया को भी अनुभूति में उतारना चाहिए। शरीर और मन परमेश्वर को समर्पित किया गया ओर उसे स्वीकार कर लिया। इसके बाद यही होना चाहिए कि अपना काय कलेवर पूर्णतया परमेश्वर की इच्छानुसार गतिशील रहे। अपनी कोई इच्छा में अपनी इच्छा मिलनी जाय। परमेश्वर जिसमें प्रसन्न हो वो सोचना और वही करना सच्चे भजन परायण भक्त के लिए उचित है। बदला पाने के लिए-किया गया भजन तो वेश्यावृत्ति है।
कहा जा चुका है कि भावनात्मक साधनाओं के लिए संध्या वंदन की तरह ब्रह्ममुहूर्त का बंधन नहीं है। उसे सुविधानुसार नित्य उपासन के साथ या आगे पीछे किया जा सकता है। यही बात मनन साधना पर लागू होती है। वातावरण शांत और स्थान एकांत होना चाहिए। आँखें बंद करे आराम कुर्सी पर पड़े हुए यह सोचना चाहिए कि -”शरीर मृत अवस्था में पड़ा है और प्राण उसमें से निकल कर किसी ऊँचे स्थान पर हंस पक्षी की तरह जा बैठा। अब पड़ी हुई लाश के अंग-प्रत्यंगों को पोस्टमार्टम के समय उघाड़े गये अवयवों की तरह उलटना-पलटना चाहिए और समझना चाहिए कि कपड़ों से भरी हुई पेटी की तरह ही यह काया अपने सामयिक उपयोग के लिए मिली थी। इसी प्रकार मस्तिष्क को एक छोटे डिब्बे की तरह खोलकर देखना चाहिए कि उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चार आभूषण, उपकरण औजार सुसज्जित रखे थे।”
इस ध्यान को जितनी गहराई से जितनी देर किया जा सके उतना संभव हो करना चाहिए और इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि प्राण-हंस की आत्म सत्ता सर्वथा स्वतंत्र है। शरीर की वस्त्र पेटी और मस्तिष्क की उपकरण पिटारी, जीवन रथ के दो अश्व वाहनों की तरह थी। काल कलेवर लक्ष्य पूर्ति के लिए आत्म-कल्याण के लक्ष्य को तिलाञ्जलि नहीं दी जानी चाहिए।
मृत्यु को, आयुष्य की क्षण भंगुरता को, विषयों की मृग मरीचिका को , कुछ भी साथ न जाने वाले वैभव की निरर्थकता को यदि मनुष्य गंभीरतापूर्वक समझे तो उसकी आँखें खुले कि क्या करना चाहिए था और क्या किया जा रहा है? किधर चलना चाहिए था और किधर चला जा रहा हैं। जीवन और मृत्यु दोनों एक दूसरे के साथ इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि किसी के कभी भी नीचे ऊपर होने में तनिक भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। यह वस्तुस्थिति समझ में आये तो हर व्यक्ति अपने बहुमूल्य क्षणों का ठीक प्रकार उपयोग करना सीखे, और उन निरर्थक बाल-क्रीड़ाओं में न उलझे जिनमें आमतौर से लोग अपने को घुलाये भुलाये रहते हैं। मृत्यु की विस्मृति ही वह कारण है जिसने नर जनम के श्रेष्ठतम सदुपयोग के प्रति उदासीनता उत्पन्न कर रखी है।
मनन का दूसरा अर्थ है- आत्मबोध। अपना वास्तविक स्वरूप, जीवन का उद्देश्य, शरीर और आत्मा का संबंध , श्रेय और प्रेय में से एक का चुनाव-अपनी गतिविधियों और रीति-नीतियों का सुनियोजित निर्धारण जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय इसी केंद्र पर टिके हुए हैं कि आत्मबोध हुआ या नहीं यह चेतना जब तक जगेगी नहीं तब तक लोभ और मोह की लिप्सा प्रचंड ह बनी रहेगी, तृष्णा और वासना की प्रबलता उभरी ही रहेगी, माया पाश के भव-बंधनों छुटकारा मिलेगा ही नहीं, फलतः व्यथा वेदनाओं में झुलसते रहने की दुर्गति से छुटकारा भी नहीं मिलेगा। यदि आत्मबोध का लाभ न मिल सका तो समझना चाहिए कि मानव जीवन उद्देश्य और आनंद हाथ से चला गया।
भजन अर्थात् ईश्वरीय सत्ता के साथ आत्म सत्ता का समीकरण-परस्पर विलय समन्वय की अनुभूति। मनन अर्थात् आत्मबोध। शरीर और आत्मा के स्वार्थों और संबंधों का पृथक्करण जीवन-लक्ष्य के प्रति आस्था और रीति-नीति का साहस पूर्वक निर्धारण। दोनों की साधना विधियाँ सरल है। एक ही समय या पृथक-पृथक सुविधा के समय और शांत एकांत स्थान में, सुसंतुलित चित्त से यह दोनो ध्यान, चिंतन, किये जा सकते हैं। भावनाओं की जितनी गहराई इनमें लगेगी उतनी ही अंतर्ज्योति प्रखर होती चली जायेगी और आत्मा के साथ परमात्मा का प्रणय परिणाम होने पर जिन दिव्य संपदाओं की उपलब्धि होनी चाहिए वे सहज ही करतल गत होती चली जायेगी। 

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