कुंडलिनी जागरण का नाम सब ने सुना है और आज के समय मे कुछ लोग ये दावा करते हैं के उनकी कुंडलनी जाग्रत है , लेकिन क्या यह सच है? यह सवाल उन्हें खुद से करना चाहिए। सच तो ये है के कुंडलिनी जिसकी भी जाग्रत हो जाती है उसका संसार से कोई मोह नही रहता , क्योंकि यह सामान्य घटना नहीं है , यही वास्तव में मोक्ष है ।
संयम से नियमों का पालन करते हुए लगातार योग और ध्यान करने से धीरे धीरे कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है और जब यह जाग्रत हो जाती है तो व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता। वह दिव्य पुरुष बन जाता है।कुंडलिनी एक दिव्य शक्ति है जो सर्प की फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार में स्थित है एक तरह से ये शक्ति सुप्त अवस्था मे साँप की तरह है जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक व्यक्ति सांसारिक विषयों की ओर भागता रहता है। परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो ईशवरीय अनुभूतियों का आभास होने लगता है , यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है।
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं। कुंडलिनी का एक छोर मूलाधार चक्र पर है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ लिपटा हुआ ऊपर की ओर जाता है ,उसका उद्देश्य मस्तिष्क के मध्य में स्थित सातवें चक्र सहस्रार तक पहुंचना होता है,इसे ऐसे ही समझना चाहिए जैसे हम भोलेनाथ के दर्शन करने के के लिए ऊंचाई पर जाते हैं ,अमरनाथ ,मणिमहेश , कैलाश मानसरोवर की तरह ।
कुंडलिनी जब जाग्रत होने लगती है तो पहले व्यक्ति को उसके मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। फिर वह कुंडलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुकती है उसके बाद फिर ऊपर उठने लग जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रुकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों में स्थित नकारात्मक उर्जा सदा के लिए नष्ट हो जाती है ।कुंडलिनी जागरण से शारीरिक और मानसिक ऊर्जा बढ़ जाती है और व्यक्ति को खुद में शक्ति और सिद्धि का अनुभव होने लगता है।सातवें चक्र के जाग्रत होने पर योगी परम् ज्ञान को प्राप्त हो कर अपनी इच्छा ये शरीर का त्याग कर के शिव में लीन हो जाता है । यही मोक्ष है ।
संयम से नियमों का पालन करते हुए लगातार योग और ध्यान करने से धीरे धीरे कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है और जब यह जाग्रत हो जाती है तो व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता। वह दिव्य पुरुष बन जाता है।कुंडलिनी एक दिव्य शक्ति है जो सर्प की फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार में स्थित है एक तरह से ये शक्ति सुप्त अवस्था मे साँप की तरह है जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक व्यक्ति सांसारिक विषयों की ओर भागता रहता है। परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो ईशवरीय अनुभूतियों का आभास होने लगता है , यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है।
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं। कुंडलिनी का एक छोर मूलाधार चक्र पर है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ लिपटा हुआ ऊपर की ओर जाता है ,उसका उद्देश्य मस्तिष्क के मध्य में स्थित सातवें चक्र सहस्रार तक पहुंचना होता है,इसे ऐसे ही समझना चाहिए जैसे हम भोलेनाथ के दर्शन करने के के लिए ऊंचाई पर जाते हैं ,अमरनाथ ,मणिमहेश , कैलाश मानसरोवर की तरह ।
कुंडलिनी जब जाग्रत होने लगती है तो पहले व्यक्ति को उसके मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। फिर वह कुंडलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुकती है उसके बाद फिर ऊपर उठने लग जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रुकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों में स्थित नकारात्मक उर्जा सदा के लिए नष्ट हो जाती है ।कुंडलिनी जागरण से शारीरिक और मानसिक ऊर्जा बढ़ जाती है और व्यक्ति को खुद में शक्ति और सिद्धि का अनुभव होने लगता है।सातवें चक्र के जाग्रत होने पर योगी परम् ज्ञान को प्राप्त हो कर अपनी इच्छा ये शरीर का त्याग कर के शिव में लीन हो जाता है । यही मोक्ष है ।
कुंडलनी जागरण में रस शास्त्र की या पारद की भूमिका :-
हमारे ऋषि मुनियों ने रसशास्त्र को दो भागों में व्यक्त किया है , एक लोह सिद्धि और दूसरी देह सिद्धि । लोह सिद्धि में पारद (Mercury) के प्रयोग से निम्न स्तर की धातुओं को , जैसे ताम्बा ,पीतल ,लोहा आदि को स्वर्ण में कैसे परवर्तित किया जाये इसका वर्णन किया गया है और देह सिद्धि में पारद के प्रयोग से ब्रह्मा की सृष्टि के नियमों से बंधा हुआ हमारा शरीर शिव गौरी सृष्टि के अनुरूप कैसे बनाया जाये इसका वर्णन किया गया है ।
देह सिद्धि है क्या पहले ये समझना चाहिए :-
हमारे धर्म शास्त्रों में जीवन का सबसे बड़ा उदेशय मोक्ष प्राप्त करना ही बताया गया है ताके जीवन और मरण के इस चक्र से मुक्त हो कर आत्मा उस परम् तत्व पारब्रह्म में लीन हो जाये । मोक्ष ज्ञान से हो सकता है , ज्ञान अभ्यास से होता है , और अभ्यास तभी संभव है जब हमारा शरीर सिद्ध हो । शरीर सिद्ध करने का मतलब है के शरीर रोग और वृद्धावस्था से सर्वदा मुक्त रहे सैंकड़ो हज़ारों वर्षो तक और साथ में योगाभ्यास भी होता रहे जब तक पूर्ण कुंडलनी जागृत हो कर हमे मोक्ष की प्राप्ति
न हो जाये , ये होती है देह सिद्धि जो केवल और केवल सिद्ध पारद से ही सम्भव है जो 18 संस्कार युक्त हो । क्योंके शिव बीज पारद में ही ऐसी क्षमता है के वो नष्ट हो जाने वाली धातुओं को कभी नष्ट न हो सकने वाले स्वर्ण में बदल सकता है , और सामान्य मानव देह जो समय और काल के प्रभाव से सदा क्षीण होती रहती है उसे दिव्य देह में जिस पर समय और काल का प्रभाव नही होता , ऐसी देह बना सकता है ।
देह सिद्धि प्राप्त योगियो को रसशास्त्र में रससिद्ध योगी कहा जाता है जिन्होंने पारद के सेवन से शिव गौरी सृष्टि का शरीर पा लिया है और वे इस लोक में और शिव लोक में दोनों में ही विचरण करते हैं । ऐसे रससिद्ध योगी रोग और बुढ़ापे से सदा मुक्त हैं, गर्मी सर्दी का इन पर कोई प्रभाव नहीं होता , अष्ट सिद्धियां इनको प्राप्त होती हैं , पंचविकारो से ये सर्वदा मुक्त होते हैं , देखने में ये सामान्य मानव जैसे हो सकते हैं लेकिन इनका वजन सामान्य मानव से पांच गुना ज्यादा हो सकता है क्योंकि पारद का सेवन करने से ऐसा होता होगा । एक तरह से ऐसे रससिद्ध योगी शिवरूप ही हो जाते हैं , और मोक्ष की प्राप्ति होने पर ये अपनी इच्छा से देह का त्याग करके परम् शिव में लीन हो जाते हैं । ये बात कोरी कल्पना नही है , रामायण त्रेतायुग में हुई और महाभारत द्वापरयुग में , और भगवान परशुराम , महाऋषि विश्वामित्र दोनों में ही मौजूद हैं , जबके एक युग बीत जाता है तब भी ।
इसी लिए रसशास्त्र में देह सिद्धि को सर्वोच्च बताया गया है । पारद से सोना बना लेने की सिद्धि प्राप्त कर के संतुष्ट हो जाने वाले साधको के लिए ऐसा कहा गया है के जैसे कोई सागर में से कुछ कौड़िया प्राप्त कर के संतुष्ट हो जाये । इस लिए रसशास्त्र का अध्ययन करने वालो के लिए देह सिद्धि ही परम् लक्ष्य होना चाहिए ।
ॐ नमः शिवाय्
न हो जाये , ये होती है देह सिद्धि जो केवल और केवल सिद्ध पारद से ही सम्भव है जो 18 संस्कार युक्त हो । क्योंके शिव बीज पारद में ही ऐसी क्षमता है के वो नष्ट हो जाने वाली धातुओं को कभी नष्ट न हो सकने वाले स्वर्ण में बदल सकता है , और सामान्य मानव देह जो समय और काल के प्रभाव से सदा क्षीण होती रहती है उसे दिव्य देह में जिस पर समय और काल का प्रभाव नही होता , ऐसी देह बना सकता है ।
देह सिद्धि प्राप्त योगियो को रसशास्त्र में रससिद्ध योगी कहा जाता है जिन्होंने पारद के सेवन से शिव गौरी सृष्टि का शरीर पा लिया है और वे इस लोक में और शिव लोक में दोनों में ही विचरण करते हैं । ऐसे रससिद्ध योगी रोग और बुढ़ापे से सदा मुक्त हैं, गर्मी सर्दी का इन पर कोई प्रभाव नहीं होता , अष्ट सिद्धियां इनको प्राप्त होती हैं , पंचविकारो से ये सर्वदा मुक्त होते हैं , देखने में ये सामान्य मानव जैसे हो सकते हैं लेकिन इनका वजन सामान्य मानव से पांच गुना ज्यादा हो सकता है क्योंकि पारद का सेवन करने से ऐसा होता होगा । एक तरह से ऐसे रससिद्ध योगी शिवरूप ही हो जाते हैं , और मोक्ष की प्राप्ति होने पर ये अपनी इच्छा से देह का त्याग करके परम् शिव में लीन हो जाते हैं । ये बात कोरी कल्पना नही है , रामायण त्रेतायुग में हुई और महाभारत द्वापरयुग में , और भगवान परशुराम , महाऋषि विश्वामित्र दोनों में ही मौजूद हैं , जबके एक युग बीत जाता है तब भी ।
इसी लिए रसशास्त्र में देह सिद्धि को सर्वोच्च बताया गया है । पारद से सोना बना लेने की सिद्धि प्राप्त कर के संतुष्ट हो जाने वाले साधको के लिए ऐसा कहा गया है के जैसे कोई सागर में से कुछ कौड़िया प्राप्त कर के संतुष्ट हो जाये । इस लिए रसशास्त्र का अध्ययन करने वालो के लिए देह सिद्धि ही परम् लक्ष्य होना चाहिए ।
ॐ नमः शिवाय्
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