Friday 15 December 2017

खेचरी मुद्रा और रसानुभूति...


खेचरी मुद्रा की साधना के लिए हठयोगी जीभ को लम्बी करके ‘काकं चंचु’ तक पहुँचाने के लिए जिव्हा पर कालीमिर्च, शहद, धृत का लेपन करके उसे थन की तरह दुहते, खीचते हैं और लम्बी करने का प्रयत्न करते हैं। जीभ के नीचे वाली पतली त्वचा को काट कर भी अधिक पीछे तक मुड़ सकने योग्य उसे बनाया जाता है। यह दोनों ही क्रियाएँ सर्व साधारण के उपयुक्त नहीं है। इनमें तनिक भी भूल होने से जिव्हा तन्त्र ही नष्ट हो सकता है अथवा दूसरी विपत्तियाँ आ सकती है। अस्तु यदि सर्व जमीन एवं जोखिम रहित उपासनाएँ अभीष्ट हों तो शारीरिक अवयवों पर अनावश्यक दबाव न डालकर सारी प्रक्रिया को ध्यान परक-भावना मूलक ही रखना होगा।

खेचरी मुद्रा का भावपक्ष ही वस्तुतः उस प्रक्रिया का प्राण है। मस्तिष्क मध्य को-ब्रह्मरंध्र अवस्थित सहस्रार को-अमृत-कलश माना गया है और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने का उल्लेख है। जिव्हा को जितना सरलतापूर्वक पीछे तालु से सटाकर जितना पीछे ले जा सकना सम्भव हो उतना पीछे ले जाना चाहिए। ‘काक चंचु’ से बिलकुल न सट सके कुछ फासले पर रह जावे तो भी हर्ज नहीं है। तालु और जिव्हा को इस प्रकार सटाने के उपरान्त ध्यान किया जाना चाहिए कि तालु छिद्र से सोम अमृत का-सूक्ष्म स्राव टपकता है और जिव्हा इन्द्रिय के गहन अन्तराल में रहने वाली रस तन्मात्रा द्वारा उसका पान किया जा रहा है। इसी सम्वेदना को अमृत पान पर सोमरस पास की अनुभूति कहते हैं। प्रत्यक्षतः कोई मीठी वस्तु खाने आदि जैसा कोई स्वाद तो नहीं आता, पर कई प्रकार के दिव्य रसास्वादन उस अवसर पर हो सकते हैं। यह इन्द्रिय अनुभूतियाँ मिलती हों तो हर्ज नहीं, पर वे आवश्यक या अनिवार्य नहीं है। मुख्य तो वह भावपक्ष है जो इस आस्वादन के बहाने गहन रस सम्वेदना से सिक्त रहता है। यही आनन्द और उल्लास की अनुभूति खेचरी मुद्रा की मूल उपलब्धि है।
देवी भागवत् पुराण में महाशक्ति की वन्दना करते हुए उसे कुण्डलिनी और खेचरी मुद्रा से सम्बन्धित बताया गया है-
तालुस्था त्वं सदाधारा विंदुस्था विंदुमालिनी। मूले कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा॥
-देवी भागवत्
अमृतधारा सोम स्राविनी खेचरी रूप तालु में, भ्रू मध्य भाग आज्ञाचक्र में बिन्दु माला और मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी बनकर आप ही निवास करती है और प्रत्येक रोम कूप में विद्यमान् है।
शिव संहिता में प्रसुप्त कुंडलिनी का जागरण करने के लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास आवश्यक बताते हुए कहा गया है-
तस्मार्त्सवप्रयत्नेन प्रबोधपितुमीश्वरीम्। ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्ताँ मुद्राभ्यासं समाचरेत्-शिव संहिता
इसलिए साधक को ब्रह्मरन्ध्र के मुख में रास्ता रोके सोती पड़ी कुण्डलिनी को जागृत करने के लिए सर्व प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए और खेचरी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए।
कभी कभी खेचरी मुद्रा के अभ्यास काल में कई प्रकार के रसों के आस्वादन जैसी झलक भी मिलती है। कई बार रोमांच जैसा होने लगता है, पर यह सब आवश्यक या अनिवार्य नहीं। मूल उद्देश्य तो भावानुभूति ही है।


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