Sunday, 24 December 2017

।। “श्री भर्तृहरि वैराग्य” ।।

।।श्री नवनाथजी गुरुजी चौरासी सिद्धों के चरणों में आदेश-आदेश।।
।। “श्री भर्तृहरि वैराग्य” ।।
“नाथ-योग”
पिण्डविचार: कुंड्लिनी जागरण: “नौ चक्र-वर्णन”
चतुर्थ चक्र: हृदय चक्र (अनहत-चक्र)
“श्रीशक्ति हंसकला”
भगवान श्री नाथजी गोरक्ष उद्घाटित करते हैं:
इस ज्योतिर्मयी कमल के मध्य में श्रीशक्ति स्वयं को असाधारण रूप से भव्य, मनमोहक और स्थिर लिंगाकार प्रकाश के रूप में प्रकट करती है. शिवरुपिणी-शिवाल
िंगन के आनंद में मग्न कुंड्लिनी का यह रुप ही “श्रीशक्ति हंसकला” है. योगी इसका ध्यान कर इंद्रियजयी और शांत हो जाता है. सिद्धियों की प्राप्ति का प्रलोभन नष्ट हो जाता है और योगी अपनी जैविक अथवा मानसिक शक्ति को इसमें केंद्रित कर लेता है.
चतुर्थ हृदयाधारमष्टदलकमलमधोमुखं तन्मध्ये कर्णिकायां लिंगाकारं ज्योतिरूपां ध्यायेत्।सैव हसकला सर्वेंद्रियाणि वश्यानि भवंति।।
हृदय में (सुषुम्ना नाड़ी में) स्थित चौथा चक्र अनाहत चक्र है. यह आठ दल (पंखुड़ियों) वाला कमल है, जो अधोमुख है. उसके मध्य में कर्णिका में स्थित शिव-लिंग के आकार वाली ज्योति का ध्यान करना चाहिये. यही हंसकला नाम वाली “श्रीशक्ति” है. जब योगी इसकी उपासना करता है तो समस्त इंद्रियां उसके वश में हो जाती है.
विशेष: यध्यपि सिद्धसिद्धांतपद्धति में श्री नाथजी गोरक्ष ने अनाहत-चक्र को अष्टदल कमल कहा है, तथापि अपनी अन्यान्य रचनाओं में उन्होनें अनाहत चक्र को बारह पंखुड़ियों का कमल स्वीकार किया है और उनकी इस स्वीकृति की पुष्टि शिवसंहिता आदि में भी उपलब्ध होती है.बारह दलवाला कमल ही अनाहत महाचक्र है, यह पाप-पुण्य से रहित है, जीवात्मा तब तक संसार-बंधन में भ्रमित रहता है, जब तक वह इस चक्र में ध्यानस्थ होकर परमतत्व का ज्ञान नहीं प्राप्त करता है, परमशिवत्व का साक्षात्कार नहीं कर लेता है.
द्वादशारे महाचक्रे पुण्यपापविवर्जिते।
तावज्जीवो भ्रमत्येव यावत्ततत्वं न विंदति।।
श्रीनाथजी गोरक्ष उद्घाटित करते हुवे कहतें हैं की इस चक्र का ध्यान करने वाला योगी अमृत्व में स्थित हो जाता है, अमर हो जाता है.
अनाहते महाचक्रे द्वादशारे च पंकजे।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा ध्यातामरो भवेत्।।
श्रीनाथजी गोरक्ष स्पष्ट कहतें हैं कि हृदय-चक्र (अनाहत चक्र) के ध्यान से योगी ब्रम्हमय हो जाता है. यह चक्र प्रचंड सूर्य के समान प्रकाशित होता है.
नासाग्रे दृष्टिमाधाय ध्यात्वा ब्रह्ममयो भवेत् ।। (गोरक्ष-संहिता 2/67)
हृदय-चक्र-अनाहत कमल के ध्यान से मन जड़ता का परित्याग कर उर्ध्वगामी होकर प्रबोध पाता है, जाग्रत हो जाता है.
महायोगिंद्र मत्स्येंद्रनाथजी अपने प्रिय शिष्य श्रीनाथजी गोरक्ष को उपदेशित करते हुवे कहते हैं
“हिरदा चक्र में मन प्रमोध”।।
अनाहतचक्र आघातरहित होता है. सृष्टि की समस्त ध्वनियों की उत्पत्ति परस्पर दो वस्तुओं के आघात से होती है, भौतिक जगत् के परे दिव्य ध्वनि ही समस्त ध्वनियों का स्त्रोत है. यह अनहद (अनाहद) नाद है; ये ध्वनियां हृदय केंद्र से उत्पन्न होती है. यह चक्र नीले रंग का कमल कहा गया है. इसके मध्य में षट्कोण की आकृति होतीहै. . इसका बीज मंत्र “यं” है और वाहन द्रुतगामी काला हिरण है. यह वायुतत्व का प्रतीक है. इसके देवता पिनाक धारण करने स्वयं परमात्मा ‘शिव’ है. इसकी अधिष्ठात्री देवी काकिनी है. अनेक सिद्धों और योगीयों ने इस चक्र का रंग श्वेत भी बताया है. इस चक्र में 4800 श्वास आने के समय (5 घंटे 20 मिनट) तक ध्यान करना चाहिये.
श्री नाथजी गोरक्ष इस दिव्य चक्र के लाभ बताते हैं:
(1) योगी साधक आकाश-गमन या आकाश में उड़ने में समर्थ हो जाता है.खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है. आकाश मे स्थित जीव योगी के वश में हो जाते हैं.
(2) योगी के मुख पर दिव्य मोहिनी आभा प्रकाशित रहती है.इसके ध्यान से निर्लोभता, सत्यता, प्रेम, समदर्शिता, अहिंसकता, वात्सल्य, विवेकशीलता, जिज्ञासुता, दया, क्षमा और करुणा की शक्ति प्राप्त होती है.
(3) यह चक्र दिव्य-आनंद का स्थान है. इस वर्णलिंग के स्मरण मात्र से योगी को दृष्ट-अदृष्ट फल की प्राप्ति है. वह दूरस्थ सुक्ष्म पदार्थों को देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है.
हृदयैनाहतं नाम चतुर्थ पंकज भवेत्।
कादिठान्तार्णसंस्थानं द्वादशारसमंवितम्।।
अतिशोणं वायुबीजं प्रसादस्थानमीरि
तम्।
पद्मस्थं तत्परं तेजो बाणलिंगं प्रकीर्तितम्।।
यस्यस्मरणमात्रेण दृष्टादृष्टफलं लभेत्।
सिद्धिःपिनाकियत्रास्ते काकिनी यत्र देवता।।
"आदेश 🙏🏼 आदेश "





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