प्राणमय कोश में सन्निहित प्रचण्ड जीवनी शक्ति
जीवन का सार तत्त्व प्राण है। यह प्राण ही प्रगति का आधार है। समृद्धि उसी के मूल्य पर खरीदी जाती है। सिद्धियों और विभूतियों का उद्गम स्त्रोत वही है। यह प्राणतत्त्व अपने भीतर प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है। उसका चुम्बकत्व बढ़ा देने पर विश्व प्राण में भी उसे अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध और धारण किया जा सकता है। मानवी सत्ता में सन्निहित इस प्राण भंडार को प्राणमय कोश कहते हैं। सामान्यतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और शरीर निर्वाह भर के काम हो पाते हैं। उसे साधना विज्ञान के आधार पर जागृत किया जा सके तो सामान्य में से असामान्य का प्रकटीकरण हो सकता है। प्राण की क्षमता की असीम है। प्राण साधना से इस असीमता की दिशा में बढ़ चलना- प्रचुर सशक्तता प्राप्त कर सकना सम्भव हो जाता है।
अध्यात्मशास्त्र में प्राण तत्त्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है। उसे ब्रह्म तुल्य माना और सर्वोपरि ब्राह्मी शक्ति का नाम दिया गया है। प्राण की उपासना करने आग्रह किया गया है यह प्राण आखिर है क्या? यह विचारणीय है।
विज्ञान वेत्ताओं ने इस संसार में ऐसी शक्ति का अस्तित्व पाया है जो पदार्थों की हलचल करने के लिए ओर प्राणियों के सोचने के लिए विवश करती है। कहा गया है कि यही वह मूल प्रेरक शक्ति है जिससे निश्चेष्ट को सचेष्ट और निस्तब्ध को सक्रिय होने की सामर्थ्य मिलती है। वस्तुएँ शक्तियाँ और प्राणियों की विविध विधि हलचलें इसी के प्रभाव से सम्भव हो रही है। समस्त अज्ञात और विज्ञात क्षेत्र के मूल में यही तत्त्व गतिशील है और अपनी गति से सब को अग्रगामी बनाता है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में इसी जड़ चेतन स्तरों की समन्वित क्षमता का नाम प्राण होना चाहिए। पदार्थ को ही सब कुछ मानने वाले ग्रैविटी, ईथर, मैगनेट के रूप में उसकी व्याख्या करते हैं अथवा इन्हीं की उच्चस्तरीय स्थिति उसे बताते हैं। चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने वाले विज्ञानी उसे साइकिक फोर्स लेटेन्ट हीट कहते हैं।
ऋषियों का अभिप्राय प्राण से क्या है, इसका परिचय उस शब्द के नामकरण के आधार पर प्राप्त होता है। प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु जीवन, शक्ति, चेतनात्मक है। इस प्रकार उसका अर्थ प्राणियों की जीवनी शक्ति के रूप में किया जाता है।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि चेतन की जीवनी शक्ति क्या हो सकती है। यहाँ उसका उत्तर संकल्प बल के रूप में दिया जा सकता है जिजीविषा से लेकर प्रगति शीलता ही तक उसके असंख्य रूप है। अन्तःकरण की आकांक्षा ही विचार शक्ति और क्रिया शक्ति की उत्तेजना एवं दिशा होती है। मात्र आकांक्षा रहने से काम नहीं चलेगा। उसे तो कल्पना या ललक मात्र कहा जा सकता है। आकांक्षा के साथ उसे पूरा करने की साहसिकता भी जुड़ी हुई हो तो उसे संकल्प कहा जा सकेगा। संकल्प में आकांक्षा, निष्कर्ष, योजना और अग्रगम्य के लायक अभीष्ट साहसिकता जुटी रहती है। यह संकल्प ही मनुष्य जीवन का वास्तविक बल है उसी के सहारे पतन उत्थान के आधार बनते हैं। परिस्थितियाँ इसी संकल्प भरी मन संकल्प तत्त्व को चेतन का प्राण कहा जा सकता है। इसी की उपासना करने के लिए अभिवर्धन के लिए तत्त्वदर्शियों ने निर्देश दिये है। प्रज्ञोपनिषद ने प्राण की व्याख्या संकल्प रूप में की है।
यच्चितस्तेनैष प्राणामायति प्राणस्तेजसा युक्तः महात्मना यथा संकल्पितं लोकं नयति।
प्रश्नोपनिषद् 3।10
आत्मा का जैसा संकल्प होता है वैसा ही स्वरूप संकल्प इस प्राण का बन जाता है। यह प्राण ही जीव के संकल्पानुसार उसे विभिन्न योनियाँ प्राप्त कराता है।
विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए एककोशीय जीवाणु इसी संकल्प शक्ति की प्रेरणा से क्रमशः आगे बढ़े और विकसित हुए है। अध्यात्म शास्त्र के अनुसार ब्रह्म ने एक से बहुत होने की इच्छा की और ब्रह्म इच्छा शक्ति ही प्रकारान्तर से परा-अपरा प्रकृति बनकर जगत् बन गई। उसी का विस्तार पंचतत्वों और पंच प्राणों में होता चला गया है।
विश्व के अन्तराल में काम करने वाली समग्र सामर्थ्य को व्याख्या के रूप में प्राण कहा जाता है। वह जड़ और चेतन दोनों को ही प्रभावित करती है। उपासना उसके इस एक पक्ष की ही की जाती है। जो मनुष्य को सत्प्रयोजनों की स्थिति में अग्रसर करने ने लिए प्रयुक्त होती है। चेतना की सामर्थ्य तो उभय पक्षीय है। वह दुष्टता के क्षेत्र में दुस्साहस बनकर भी काम करती है।
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