Friday 15 December 2017

शिवतव की प्राप्ती.. भाग २..........


स्थूल रूप से शब्द दो प्रकार का होता है-
(1) जल्प (2) अन्तर्जल्प।
हम बोलते हैं, यह है जल्प। जल्प का अर्थ है-स्पष्ट वचन, व्यक्त वचन। हम बोलते नहीं किन्तु मन में सोचते हैं, मन में विकल्प करते हैं, यह है अन्तर्जल्प। मुुंह बंद है, होंठ स्थिर है, न कोई सुन रहा है फिर भी मन में आदमी बोलता चला जा रहा है, यह है अन्तर्जल्प। सोचने का अर्थ है-भीतर बोलना। सोचना और बोलना दो नहीं है। सोचने के समय में भी हम बोलते हैं और बोलने के समय में भी हम सोचते हैं। यदि हम साधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शब्द को समझकर उसके चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते-आते स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष़्म है वह हमें सुनाई नहीं देता, जो स्थूल है वही हमें सुनाई देता है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि। अश्रव्य ध्वनि अर्थात् (Ultra Sound Super Sonic) यह सुनाई नहीं देती। हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है। कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है। यदि हमारा कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो आदमी जी नहीं सकता। यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों से प्रकम्पित है। अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा-वर्गणा के पुदगल बिखरे पड़े हैं। बोलते समय भाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैं और आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं। हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं। मनुष्य जो सोचता है, उसके मनोवर्गणा के पुद्गल करोड़ों वर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रख सकते हैं। यह सारा जगत तरंगों से आंदोलित हैं। विचारों की तरंगे, कर्म की तरंगे, भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाश में व्याप्त है। मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। शब्द में असीम शक्ति होती है।
‘¬ नमः शिवाय’ महामंत्र में तीन शब्द है। ¬ नमः शिवाय। इसमें पांच अक्षर है। इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं। पंचाक्षरी इसलिए कि ‘¬’ अक्षरातीत है। ‘नमः शिवाय’ में पांच अक्षर है। ¬ को ब्रह्म, प्रणव आदि नामों से पुकारा जाता है। उपनिषदों में कहा गया है- ‘¬’ ‘ओम् इति ब्रह्म’ ओम् ब्रह्म है। पातंजल योगसूत्र में कहा गया है- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ प्रणव ईश्वर का वाचक है। ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है। शब्द ब्रह्म को भली भांति जान लेने पर परब्रह्म की प्राप्ति होती है।
‘शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति’
शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैं यही शब्द ब्रह्म है। इस चराचर विश्व के जो वास्तविक आधार हैं, जो अनादि, अनन्त और अद्वितीय हैं तथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उस निर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ओम है।
ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण (Efficient Cause) ही नहीं अपितु उपादान कारण (Material Cause) भी है। प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे। उनकी इच्छा हुई ‘एकोऽहम बहुस्याम’ और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया। जैसे मकड़ी अपने अन्दर के ही तन्तुओं से जाला बुनती है। अतः यह विश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही विभिन्न रूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं। अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी का वाचक हुआ। इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकार ब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूप में भी ब्रह्म अपने आपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है।
इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है। योगीजन इस शब्द की महिमा में गाते-गाते नहीं थकते। गोरखनाथजी महाराज कहते है:-
‘शब्द ही ताला शब्द ही कूंची।
शब्द ही शब्द समाया।
शब्द ही शब्द सूं परचा हुआ।
शब्द ही शब्द जगाया।
यह शब्द ‘ओम्’ है। विश्व के सभी धर्मों में इस शब्द की महिमा गाई गई है। बाइबिल में लिखा है - On the beginning was the work and the word with god and the word was god. यह 'Word' ओम ही है। मुस्लिम धर्म में इस शब्द को ‘कलमा’ ‘बांग’, ‘आवाजे खुदा’ आदि नामों से पुकारा गया है।
शास्त्रों में वर्णित है कि आंेकार से ही इस विश्व की सृष्टि हुई है। ‘शब्द’ पद का वैदिक अर्थ है - सूक्ष्म भाव (Subtitle Idea) सूक्ष्म भाव स्थूल पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। इन्हीं भावों का आश्रय लेकर सभी स्थूल पदार्थों की सृष्टि होती है। भाव-शब्द ही स्थूल रूपों का जन्मदाता है। मन में उठने वाला प्रत्येक भाव अथवा मुख से उच्चरित होने वाला प्रत्येक शब्द विशेष - विशेष कंपन मात्र हैं। इन कम्पनों में खास-खास आकृति बनाने की क्षमता रहती है। वायस फिगर (Voice Figure) पुस्तक की लेखिका मिसेज वाट्स हूग्स ने अपने Eidophone यंत्र द्वारा इसे प्रदर्शित कर दिया है। उच्चारण के साथ ही आकृति बन जाती है। अतः किसी भी स्थूल पदार्थ की सृष्टि होने से पूर्व उससे सम्बन्धित भाव विद्यमान रहता है और वही भाव स्थूलाकार में परिणत हो जाता है। सारी सृष्टि के लिए यही नियम लागू होता है। विभिन्न प्रकार के भावों या शब्दों से ही इस विचित्र बहुरूपात्मक विश्व की सृष्टि हुई है। विश्व निर्माणकारी ये सभी भाव एक ही शब्द अथवा भाव से निःसृत हुए हैं और वह शब्द है ‘ओम’। ‘ओम्’ सभी भावों की समष्टि है।
अब प्रश्न उठता है कि इसका क्या प्रमाण है कि विश्व निर्माणकारी सभी भाव ‘ओम’ से ही निःसृत हुए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है - ब्रह्मज्ञ पुरुषों की प्रत्यक्ष अनुभूति। ब्रह्मज्ञ पुरुषों को समाधि की अवस्था में अनुभव होता है कि जगत् शब्दमय है और फिर वह शब्द गंभीर ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है। विभिन्न स्थितियां इस प्रकार वर्णित करते हैं योगी जना ‘घर्र-घर्र की आवाज, घंटा, वीणा की आवाज, सारेगम प द नी सा के स्वरों की आवाज, शंख ध्वनि’, इसके पश्चात् ¬ कार की ध्वनि, फिर उसके बाद कोई स्वर नहीं। शब्दातीत स्थिति को अनादि नाद कहकर पुकारते हैं। यहां जाकर मन प्रत्यक्ष ब्रह्म में लीन हो जाता है। सब निर्वाक, स्थिर। समाधि से लौटते वक्त भी जब पहली अनुभूति होती है तो ओंकार शब्द ही सुनाई पड़ता है। यह अनुभूतिजन्य विवरण सभी ब्रह्मज्ञ पुरुषों का एक सा ही है।
‘ओम्’ शब्द पूर्ण शब्द है। ओम् में अ, उ, म तीन अक्षर हैं। इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओम’ बनता है। इसका प्रथम अक्षर ‘अ’ सभी शब्दों का मूल है, चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो। ‘अ’ जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ से उत्पन्न होता है। ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है। ‘उ’ कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है। इस प्रकार ओम् शब्द के द्वारा शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ से लेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओम में उन सभी ध्वनियों का समावेश है। फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं। अतः ओम् शब्दों की समष्टि है।
अब संक्षेप में आंेकार की रचना भी समझनी जरूरी है। ओंकार में अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं। ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं। ओंकार के दो स्वरूप हैं। अकार, उकार एवं मकार अशुद्ध विभाग हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन भूमिकाओं में इन तीन अवयवों का कार्य होता है। जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहली तीन मात्राओं में विद्यमान है। तुरीय या तुरीयातीत अवस्था चतुर्थ अवयव से शुरू होती है। अकार, उकार एवं मकार तीन शक्तियों के प्रतीक हैं - उकार ब्रह्मा का प्रतीक है तथा मकार महेश का प्रतीक है। प्रणव के चतुर्थ अवयव ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना तक कुल 9 अंश प्रणव के शुद्ध विभाग हैं। बिन्दु अर्द्धमात्रा रूपी अवयव है। बिन्दु में एक मात्रा का अर्द्धाशं है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका में अर्द्धचन्द्र अर्द्धांश है। इस प्रकार यह क्रम प्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है। यह क्रम समना तक चलता है। ये अंश या मात्राएं किसकी हैं ? ये वास्तव में मन की मात्राएं हैं। मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती है। उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है। मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती। योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशः सूक्ष्ममात्रा में होते हुए अमात्रक स्थिति में पहुंच जाए। उन्मना में न मन है, न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवता है। वह शुद्ध चिदानन्द - भूमि है।
ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है। बिन्दु का अनुभव भ्रूमध्य के ऊर्ध्व में होता है। ब्रह्मरन्ध्र की अन्तिम सीमा तक नाद का अनुभव चलता है। नादान्त भेद हो जाने पर स्थूल दृष्टि से देह का भेद हो जाता है। अतः नाद का अवलम्बन लेकर ही नादान्त तक पहुंचा जाता है। नाद साधना ही वस्तुतः ओंकार की साधना है। इस साधना में पारंगत होने पर केवल नाद का ही अतिक्रमण नहीं होता अपितु शून्य का भी अतिक्रमण होता है और अन्त में मन का भी अतिक्रमण होता है, जिसका फल है परमेश्वर से तादात्म्य लाभ।
इस प्रकार ओम् एक महामंत्र है। इसका जप और इसके अर्थ का चिन्तन समाधि-लाभ का उपाय है। वाचक एवं वाच्य का अभेद सम्बन्ध होता है। ज्यों ही वाचक शब्द का स्मरण अथवा उच्चारण किया जाता है त्यों ही वह उसके वाच्य पदार्थ का बिम्ब मन में ला देता है। ‘यत ध्यायति तत् भवति’ के अनुसार ‘ओम्’ शब्द के जप एवं स्मरण से हमारे मन में ब्रह्मभाव जाग्रत होता है। मन में यह भाव जगाए रहने के लम्बे अभ्यास के बाद अन्त में मन ब्रह्म भाव में अवस्थित हो जाता है। अतः ‘ओम्’ सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तक पहुंचने की कुंजी है।
वाक्-शक्ति के चार प्रकार हैं - बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती एवं परा। बैखरी वाक् शब्द का निम्नतम स्तर है। इसको पकड़कर क्रमशः परावाक् पर्यन्त उठने का प्रयोजन है। बैखरी से तात्पर्य हमारी स्थूल ध्वनि से है। जब हम बोल-बोल कर जप करते है, यह बैखरी वाणी कहलाती है। जब हम मन ही मन जप या स्मरण करते हैं इसे मध्यमा कहा जाता है। जब हम शब्द और उसके अर्थ दोनों को देखते हुए स्मरण करते हैं, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। जहां न बोलना है, न देखना है अर्थात् निर्विचार एवं निर्विकल्प स्थिति होती है, उस स्थिति में एक शून्य भाषा व्यापक होती है उसे परावाक् कहते हैं। बैखरी जप में जपकर्ता को यह अहसास रहता है कि मैं जप कर रहा हूं। मध्यमा में साधक का यह अहसास छूट जाता है कि मैं जप कर रहा हूं। उसका जप अजपा जाप हो जाता है। बिना किसी प्रयास के एवं बिना किसी अहं भाव के जप चलता रहता है। मध्यमा में हृदय से जाप होता है, मस्तिष्क से नहीं होता। जागृति समाप्त हो जाती है। मध्यमा वाक् के अभ्यास से नाद-श्रवण होने लगता है। पश्यन्ती में साधक ओंकार को आज्ञाचक्र से ऊपर बिल्कुल ललाट के मध्य में कल्पना से ज्योतिस्वरूप बिन्दु को देखता है। यहां देखना ही बोलना है। परास्थिति में देखना भी छूट जाता है। केवल शून्य में ठहरना होता है। यहां ठहरने का आधार आनंद की अनुभूति होती है। इस प्रकार शब्दातीत परमपद का साक्षात्कार करने के लिए शब्द का आश्रय लेकर ही शब्द राज्य का भेद करना होता है। जप-साधना में शब्द को पकड़कर शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश है।
‘¬ नमः शिवाय’ महामंत्र के प्रथम भाग ‘¬’ की रचना एवं जप की विधि की चर्चा के पश्चात् यह देखना है कि इस महामंत्र में ‘नमः शिवाय’ शब्दों का समावेश करने का क्या प्रयोजन है। नमः शब्द नमस्कार का ही छोटा रूप है। यह महामंत्र नमस्कार मंत्र भी है। प्रणव की अवधारणा में कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ की साधना करते-करते साधक कहीं अहंकार का शिकार न हो जाए, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘नमः शिवाय’ शब्दों से विनम्र समर्पण है। अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती। सान्तता समाप्त हुए बिना अनन्त की अनुभूति नहीं होती। अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है - अहंकार का विलय और ममकार का विलय।
‘नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है-अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण। इससे अहंकार विलीन हो जाता है। जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता। अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त। जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता। ममकार पदार्थ के प्रति होता है। शिव तो परम चेतन स्वरूप है। अपना ही चेतनरूप शिव है। चेतना के प्रति ममकार नहीं होता। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है। साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूंँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’
‘नमः शिवाय’ शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य है। यह अनुभूति अभय पैदा करती है। रमण महर्षि से पूछा गया - ‘ज्ञानी कौन ? ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो।’ ‘नमः शिवाय’ अभय के द्वारा ज्ञान की ज्योति जलाता है। अतः मंत्र सृष्टा ऋषियों ने ‘¬’ के साथ नमः शिवाय संयुक्त कर ‘¬’ रूपी ब्रह्म को ‘शिव’ रूपी जगत के साथ मिलाया है।
मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द। शब्द मन के भावों को वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार सम्प्रेषण का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटोसजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन के भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है, जोर-जोर से बोलता है, ध्वनि की तरंगे तेज गति से प्रवाहित होती है, फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे-धीरे करता है, मंद कर देता है। पहले ओठ, दांत, कंठ सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं। ध्वनि मंद हो जाती है। होठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना - दोनों कंठ के प्रयत्न हैं। ये स्वर तंत्र के प्रयत्न हैं। जहां कंठ का प्रयत्न होता है वह शक्तिशाली तो होता है किन्तु बहुत शक्तिशाली नहीं होता। उसका परिणाम आता है किन्तु उतना परिणाम नहीं आता जितना हम इस मंत्र से उम्मीद करते हैं मंत्र की परिणति या मूर्घन्य तब वास्तविक परिणाम आता है जब कंठ की क्रिया समाप्त हो जाती है और मंत्र हमारे दर्शन केन्द्र में पहुंच जाता है। यह मानसिक क्रिया है। जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है, तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ एवं दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकंपन नहीं होता। मन ज्योति केन्द्र में केन्द्रित हो जाता है प्श्यन्ति वाक शैली में पूरे मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाए। उच्चारण नहीं, केवल मंत्र का दर्शन, मंत्र का साक्षात्कार, मंत्र का प्रत्यक्षीकरण। इस स्थति में मंत्र की आराधना से वह सब उपलब्ध होता है जो उसका विधान है।
मानसिक जप के बिना मन की स्वस्थता की भी हम कल्पना नहीं कर सकते। मन का स्वास्थ्य हमारे चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता पर निर्भर है। जब हमारे दर्शन केन्द्र और ज्योति केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं तब हमारी शक्ति का स्रोत फूटता है और मन शक्तिशाली बन जाता है। नियम है-जहां मन जाता है, वहां प्राण का प्रवाह भी जाता है। जिस स्थान पर मन केन्द्रित होता है, प्राण उस ओर दौड़ने लगता है। जब मन को प्राण का पूरा सिंचन मिल जाता है और शरीर के उस भाग के सारे अवयवों को, अणुओं और परमाणुओं को प्राण और मन का सिंचन मिलता है तब वे सारे सक्रिय हो जाते हैं। जो कण सोये हुए हैं, वे जाग जाते हैं। चैतन्य केन्द्र को जाग्रत हुआ तब मानना चाहिए जब उस स्थान पर मंत्र ज्योति में डूबा हुआ दिखाई पड़ने लग जाए। जब मंत्र बिजली के अक्षरों मंे दिखने लग जाए तब मानना चाहिए वह चैतन्य केन्द्र जाग्रत हो गया है।
मंत्र का पहला तत्त्व है-शब्द और शब्द से अशब्द। शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है तब वह अशब्द बन जाता है।
मंत्र का दूसरा तत्त्व है-संकल्प। साधक की संकल्प शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। यदि संकल्प शक्ति दुर्बल है तो मंत्र की उपासना उतना फल नहीं दे सकती जितने फल की अपेक्षा की जाती है। मंत्र साधक में विश्वास की दृढ़ता होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। उसका आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिए। साधक में यह विश्वास होना चाहिए कि जो कुछ वह कर रहा है अवश्य ही फलदायी होगा। वह अपने अनुष्ठान में निश्चित ही संभवतः सफल होगा। सफलता में काल की अवधि का अन्तर आ सकता है। किसी को एक महीने में, किसी को दो चार महीनों में और किसी को वर्ष भर बाद ही सफलता मिले। बारह महीने में प्रत्येक साधक को मंत्र का फल अवश्य ही मिलना चालू हो जाता है।
संकल्प तत्त्व में श्रद्धा समन्वित है। श्रद्धा का अर्थ है-तीव्रतम आकर्षण। केवल श्रद्धा के बल पर जो घटित हो सकता है, वह श्रद्धा के बिना घटित नहीं हो सकता। पानी तरल है। जब वह जम जाता है, सघन हो जाता है तब वह बर्फ बन जाता है। जो हमारी कल्पना है, जो हमारा चिन्तन है वह तरल पानी है। जब चिन्तन का पानी जमता है तब वह श्रद्धा बन जाता है। तरल पानी में कुछ गिरेगा तो वह पानी को गंदला बना देगा। बर्फ पर जो कुछ गिरेगा, वह नीचे लुढ़क जायेगा, उसमें घुलेगा नहीं। जब हमारा चिन्तन श्रद्धा में बदल जाता है तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम होता है।
मंत्र का तीसरा तत्त्व है-साधना। शब्द भी है, आत्म विश्वास भी है, संकल्प भी है तथा श्रद्धा भी है, किन्तु साधना के अभाव में मंत्र फलदायी नहीं हो सकता। जब तक मंत्र साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक सतत साधना करता रहे। वह निरन्तरता को न छोड़े। योगसूत्र में पातंजलि कहते हैं - ‘दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारा सेवितः।’ ध्यान की तीन शर्त है-दीर्घकाल, निरन्तरता एवं निष्कपट अभ्यास। साधना में निरन्तरता और दीर्घकालिता दोनों अपेक्षित है। अभ्यास को प्रतिदिन दोहराना चाहिए। आज आपने ऊर्जा का एक वातावरण तैयार किया। कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमण्डल स्वतः शिथिल हो जाता है। एक मंत्र साधक तीस दिन तक मंत्र की आराधना करता है और इकतीसवें दिन वह उसे छोड़ देता है और फिर बतीसवें दिन उसे प्रारम्भ करता है तो मंत्र साधना शास्त्र कहता है कि उस मंत्र साधक की साधना का वह पहला दिन ही मानना चाहिएं
साधना का काल दीर्घ होना चाहिए। ऐसा नहीं कि काल छोटा हो। दीर्घकाल का अर्थ है जब तक मंत्र का जागरण न हो जाए, मंत्र चैतन्य न हो, जो मंत्र शब्दमय था वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जाए, तब तक साधना चलती रहनी चाहिए।
जब तक साधना में मंत्र के तीनों तत्त्वों का समुचित योग नहीं होता तब तक साधक को साधना की सफलता नहीं मिल सकती।
अध्यात्म की शैव-धारा में ‘¬ नमः शिवाय’ एक महामंत्र है। इस महामंत्र की सिद्धि जीवन की सिद्धि है। इस मंत्र की साधना से भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उपलब्धियां प्राप्त होती है। आवश्यकता है उसे अपना कर अनुभव करने की।
गुरु लोगों के मुखारविन्द से, स्वाध्याय एवं स्वानुभूति से जो निष्पत्तियां आई हैं, उन्हीं का निरूपण करने की चेष्टा मैंने की है।
इसमें किसी प्रकार का अहं भाव एवं कृत्रिमता का संयोग नहीं है.
जौ हे गुरूजी का प्रसाद है.


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