Friday, 15 December 2017

अध्यात्म की साधना भाग २


1. शरीर 2. वाणी अर्थात् शब्द 3. मन।
साधक को सर्व प्रथम शरीर को जानना एवं साधना बहुत जरूरी है। शरीर बहुत बड़ा यंत्र है। विश्व की सबसे बड़ी फैक्ट्री भी इसके समक्ष छोटी पड़ती है। पूरे शरीर में 60 खरब न्यूरोन, सेल हैं जो स्वायतशासी हैं। प्रत्येक सेल 11 जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। बिजली बनाता है, अपने क्षेत्र में बिजली सप्लाई करता है, ज्ञानग्राही तन्तुओं से सूचना प्राप्त करता है, ज्ञानग्राही तंतुओं से सूचना मस्तिष्क एवं शरीर में फैलाता है, क्रियावाही तंतुओं को कार्य के लिए सूचित करता है। एक सेल, एक अदना सा सेल 1 लाख तक सूचनाएं संग्रहीत कर सकता है। मस्तिष्क में 1 खरब सेल एक साथ सक्रिय हैं। लाखों-करोड़ों स्मृतियों के प्रकोण हैं। लाखों-करोड़ों आवेशों के प्रकोष्ठ हैं सबकी स्वचालित व्यवस्था है। पूरे ज्ञान तंतुओं की लम्बाई 1 लाख मील है जबकि पूरी पृथ्वी का क्षेत्रफल 25 हजार वर्ग मील है। सामान्यतया हम हमारी क्षमता का मात्र 5 प्रतिशत प्रयोग करते हैं। कुछ लोग इससे भी कम प्रयोग कर पाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुषों ने अपनी क्षमता का मात्र 20 प्रतिशत प्रयोग किया है। विश्व का पूरा उद्योग तंत्र, राजतंत्र एवं समाज तंत्र इस शरीर तंत्र के समक्ष बहुत छोटा है। इसीलिए ‘पिण्डे सो ब्रह्माण्डे’ कहा गया है। पहला कार्य है-शरीर तंत्र की विराटता को समझे। दूसरा कार्य है- शरीर को निवृत्त करना और प्रवृत्त करना। प्रवृत्त करने में आसन, प्राणायाम, स्वांस की क्रियाएं, बैठने की सारी मुद्राएं आ जाती है। शरीर को निवृत्त करने का अर्थ है - शरीर को सारी क्रियाओं से मुक्त कर हल्का बना देना मानो कि शरीर है ही नहीं। शरीर को साधने के लिए अभ्यास जरूरी है। यदि एक आसन में हम एक घंटा भी नहीं बैठ पाते हैं, तो साधना करना बिल्कुल संभव नहीं है। अभ्यास में साधना क्रम ही तो है। साधना के लिए शरीर को साधना बहुत जरूरी है। गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं:- 
‘आसन दृढ़ आहार दृढ़ जे निद्रा दृढ़ होय। 
गोरख कहे सुनो रे पूता, मरे न बूढ़ा होय।।
दृढ़ आसन, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा-साधना की पूर्व शर्तें हैं। बैठने का आसन दृढ़ होना चाहिए। भले ही वह सुखासन ही हो। तीन आसन साधना के लिए उपयोगी एवं व्यवहार्य है-सुखासन, पद्मासन और सिद्धासन। इनमें से जो भी आसन आपको सुगम लगे, आरामदायक लगे उसे ही अपनाना चाहिए। आसन वहीं स्वीकार्य है जिसमें बैठकर आप तकलीफ महसूस न करें। आसन तीनों में से जो चाहे अपना लें पर एक घंटा की लगातार बैठक का अभ्यास होना जरूरी है। एक घंटा की लगातार बैठक आप बिना किसी कष्ट के कर लेते हैं, इतना अभ्यास परम आवश्यक है।
शरीर को साधने के लिए दूसरी आवश्यकता है-संयमित आहार की। आयुर्वेद में अच्छे स्वास्थ्य के लिए तीन शर्तें बताई है आहार की 1. हितभुक् 2. मितभुक 3. ऋतुभुक। वही खाया जाए तो शरीर के अनुकूल हो। शरीर की अपनी अपनी प्रकृति है। अनुसंधान कर जान लें कि मेरे शरीर को कौन-कौन सी खाद्य सामग्री अनुकूल पड़ती है। जो अनुकूल खाद्य सामग्री है उसी का प्रयोग किया जाए। बीच-बीच में उपवास भी किए जाए। अधिक आहार से मल संचित होते हैं। जिसके शरीर में मल संचित होते हैं, उसका नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रहता और मन भी निर्मल नहीं रहता। दुःखदायी एवं उटपटांग स्वप्न उसी रात को ज्यादा आते हैं जिस रात आपने जरूरत से ज्यादा खा लिया है या फिर आप प्रकोष्ठ बद्धता के शिकार हैं। ज्ञान और क्रिया, इन दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम नाड़ी संस्थान है। मलों के संचित होने पर ज्ञान और क्रिया दोनों में अवरोध पैदा हो जाता है। फेफड़ों व आंतों को राहत देने के लिए भूख से कम भोजन उपादेयी होता है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उपवास, मित भोजन और रस परित्याग सुझाए गए हैं।
ऋतुभुक का अर्थ है - खरी कमाई (कमाई) की रोटी खाई जाए। कुटिल तरीकों से अर्जित खाद्यान का उपयोग न किया जाए। जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन। शरीर साधना की तीसरी आवश्यकता है - नींद पर काबू। नींद पर नियंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि नींद ही न ली जाए। जितनी देर साधना क्रम अपनाया जाए, हम पूर्ण जागरूक रहें। हमारा रोम रोम पूर्ण जाग्रत रहे। पूर्ण चैतन्य रहें। आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं। उस निर्जन बीहड़ जंगल में आप छोटी सी आहट से ही चौंक जाते हैं उसके प्रति सजग हो जाते हो। ऐसी ही चैतन्या जरूरी है। आसन दृढ़, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा प्रारम्भिक तैयारी है।
हमारा दूसरा आधार है - वाणी अर्थात् शब्द। शब्द की शक्ति असीमित है। गोरखनाथजी महाराज कहते हैं - 
‘सबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया। 
सबदहि सबद सूं परचा हुआ, सबदहि सबद समाया।।’
ऐसी विराटता है शब्द की। यह शब्द क्या है ? यह शब्द है ‘¬’ (औंकार) सृष्टि की उत्पत्ति के समय Big Bang के रूप में ‘¬’ शब्द का विस्फोट हुआ। शब्द से ही अन्य स्वर प्रकट हुए, !



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