महाकाली शव पर आरूढ है । उसका स्वरूप महाभयावह है । उसकी दाढ महाविकराल है । वह विद्रूपता से हंस रही है । उसकी चार भुजाओं में से एक में खडग है, दूसरे में नरमुंड, तीसरे में अभयमुद्रा और चौथे में वर । जीभ बाहर निकली हुई है और गले में मुंडों की माला । व्ह नग्रावस्था में है । उसका निवास स्थान श्मशान है ।
महाशक्ति महाकाली का संबंध प्रलयरात्रि मध्यकाल से है । जब तक मनुष्य शक्तिशाली होता है, वह शिव है । किंतु शक्तिहीन होते ही वह शव में परिवर्तित होता है । उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है ।
विश्व के अस्तित्व में आने से पहले महाकाली का अविर्भाव हो चुका था । वही विश्व की संहारक कालरात्रि है । उसकी प्रतिष्ठा संहार और प्रलय से है, सृष्टि की रचना से नहीं । प्रलय और संहार के समय सारी सृष्टि शव के समान हो गई है और उसके ऊपर महाकाली पांव धरकर खडी हुई है । विश्व मरणशील है, अतः शवस्वरूप है । इसी शवस्वरूप को विश्व का निदान कहा गया है ।
जो संहार करता है, प्रलय लाता है, वह महाप्रचंड होता है । उसकी मुखाकृति अत्यंत वीभत्स होती है । कोई उसकी ओर आंख उठाकर देखने का साहस नहीं जुटा पाता । महाकाली की कुखाकृति अत्यंत प्रचंड होती है. क्योंकि वह नाश और संहार की देवी है । उसकी आंखों में करुणा नहीं, काल होता है । उसके नाशक संहारक स्वरूप का निदान है यह भयोत्पादक मूर्ति ।
महाकाली का अट्टहास विजय का द्योतक है । उसका अट्टहास सुनकर चारों तरफ भय की सृष्टि होती है । सृष्टि उसकी प्रचंडता और भीषणता से त्राहि-त्राहि कर उठती है । यह अट्टहास महाकाली की विजय और भयावहता का निदान है ।
महाकाली की अनेक भुजाएं हैं । किंतु जब वह संहार अभियान पर निकलती है तो केवल चार भुजाओं का उपयोग करती है । वह खड्ग से विनाशलीला करती है । यह खड्ग उसकी संहारक शक्ति का निदान है । प्राणियों का संहार करने का निदान नरमुंड है । किंतु विनाशलीला करने वाली महाकाली का एक हाथ अभय मुद्रा में और दूसरा वरभाव में क्यों ?
वस्तुः जिसने भी विनाशकारी महाकाली के रूप को साकार किया था, वह अवश्य कल्पनाशील और रचनाशील था । जिस शक्ति का महाकाली प्रतिनिधित्व करती है, उसके अर्थ, उद्देश्य और भाव से वह निस्संदेह भलीभांति परिचित था. तभी तों मूर्ति को सार्थकता दे सका ।
यह सच है कि महाकाली साक्षात भय और विनाश है । उसका काम केवल प्रलय और विध्वंस है । किंतु वह अभय और वर प्रदायनी है । विश्व मायाशील है, शोक संतप्त है, सुख की कामना से विह्वल है । उसे सबसे अधिक भयभाव सताता है । यदि वह महाकाली की शरण में आए तो अभयपद को प्राप्त हो सकता है । अतः महाकाली की उपासना करने वाला भयहीन और शोकमुक्त हो जाता है ।
प्रलय की बेला में जब प्राणी कालग्रास बनते हैं, तब महाकाली शवों को स्वयं धारण करती है । मरण महासत्य है । महाकाली इस सत्य की वाहक है । अतएव मृतकों को स्वयं पर प्रतिष्ठित कर उनका उद्धार करती है । इसी भाव को प्रकट करती है उसके गले में मुंडमाला ।
संपूर्ण ब्रह्मांड में महाकाली व्याप्त है । वह सृष्टि के चराचर में समाहित है । वह अनावृत है । आकाश, दिगंत और दिशाएं ही उसकी परिधान है । उसकी गग्रावस्था का निदान इसी भाव में है ।
महाकाली अपना विशाल, चरम और परम स्वरूप तब धारण करती है, जब प्रलय का आह्वान करती है । चारों ओर विनाशलीला का घनघोर रौरव व्याप्त हो जाता है । वह संपूर्ण विश्व को श्मशान बनाकर अपने नितांत तमस्वरूप को प्राप्त होती है । तभी तो श्मशान को उसका निवास स्थान बताया गया है । यह श्मशान और कुछ नहीं केवल उसके तमस्वरूप का निदान है । यही वास्तविक महाकाली है ।
निस्संदेह महाकाली के इस स्वरूप को देखकर साधारण जन उसकी उपासना करने की कल्पना से ही कांप उठता है । इस सत्य से ऋषि-मुनि अनभिज्ञ नहीं थे । अतः उन्होंने महाशक्तियों की आंतरिक संरचना ध्यान रखते हुए निदान के माध्यम से उनकी काल्पनिक मूर्तियों का निर्माण किया और उनके प्रत्येक स्वरूप की मीमांसा प्रस्तुत की, ताकि लोग उनके कल्याणकारी पहलू से परिचित हो सकें ।
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