Wednesday 13 December 2017

शव भी शिव है और शिव ही शव भी, दोनों के बीच अंतर है

"शव भी शिव है और शिव ही शव भी, दोनों के बीच अंतर है तो केवल इश्वर्य तत्व की अनुभूति मात्र का , ऐसे में, हम शिव बनकर जियें या शव बनकर यह व्यक्तिगत विवेक के निर्णय का विषय है जिसके लिए सभी स्वतंत्र भी।
वास्तव में, विज्ञानं के अनुसार भी आवश्यक नहीं की हर ऊर्जा शरीर के परिधि में सीमित हो पर निश्चित रूप से प्रत्येक ऊर्जा की अपने तरंगें होती हैं और विशिष्ट आवृति भी, फिर उनका प्रारूप चाहे जो हो।
गुरुत्व आकर्षण बल या विद्युत् चुम्कीय बल की बात करें तो वो भी ऊर्जा का प्रारूप ही हैं जिनका कोई शरीर नहीं पर उनकी अनुभूति ही उनके अस्तित्व का प्रमाण होता है, ठीक इसी प्रकार, शिव भी जैविक चेतना की जागृति का वह स्तर है जो इश्वर्य तत्व की अनुभूति से प्राप्त होता है, और तब, चेतना शरीर की परिधि तक सीमित नहीं रहती और ब्रह्मांडीय चेतना और जैविक चेतना का अंतर ही समाप्त हो जाता है।
शरीर की परिधि में सीमित चेतना के लिए जो वस्तु है वही ब्रह्मांडीय चेतना के लिए विषय, और इसलिए, दृष्टिकोण के इस अंतर के नष्ट होने से ऊर्जा जब चेतना के रूप में शरीर के परिधि से सीमित नहीं रहती तो वह विभिन्न भावनाओं की अनुभूति के लिए शरीर पर आश्रित नहीं रहती बल्कि अपने ध्यान से विभिन्न अनुभव को महसूस कर पाने में दक्ष हो जाती है। जैविक चेतना जागृति के इस स्तर पर भविष्य को निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त कर लेती है।
अंतरिक्ष की अनन्तता समय को अर्थहीन बना देती है और समय की अनन्तता अंतरिक्ष को सूक्ष्म, ऐसे में, चेतना अपनी परिधि का विस्तार कर समय के साथ समन्वय स्थापित करने में सक्षम होती है; पर इसके लिए शरीर की परिधि को पार करना आवश्यक होगा।
अगर वर्त्तमान के सन्दर्भ में बात करें तो आज हमारी स्थिति ऐसी है मानो हवा से भरा कोई गुब्बारा अपने आप को गुब्बारा मानकर सर्वत्र हवा को खोजने का प्रयास कर रहा है, तभी, इतनी उलझन है।
जब तक हम धर्म को सैद्धान्तिक, कर्मकांड को औपचारिकता और जीवन के उत्सव को अनुस्ठान और आडम्बर मानकर खुश रहेंगे , हम स्वतः ही सत्य की अनुभूति से प्रतिरक्षित रहेंगे।
ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांडीय चेतना इसलिए शरीर धारण करती है क्योंकि शरीर के इन्द्रियों द्वारा ही वह सृष्टि की अनुभूति प्राप्त कर सकती है, और इसलिए, इस सृष्टि की विविध अवधारणा विभिन्न शरीर की ज्ञान इन्द्रियों द्वारा ही परिभाषित होता है, ऐसे में, सृष्टि की वास्तविकता का बोध कर पाने के लिए यह आवश्यक होगा की जैविक चेतना शरीर में रहते हुए स्वयं को शरीर से अलग पहचान सके , तभी, संसाधन के रूप में शरीर और अवसर के रूप में जीवन काल अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकेगा।
अब इसे कलयुग का प्रभाव कहिये या जीवन का वैचारिक पतन जो आज पृथ्वी पर मनुष्यों की जनसँख्या अत्याधिक है और मानवता लुप्तप्राय ;
जिस शरीर की प्राप्ति चेतना ने अपने उत्क्रांति के लिए की थी वह आज उसकी समस्या बन गयी है, तभी, हम मनुष्य तो जन्मे पर मनुष्य न बन सके और 'व्यवहारिकता' के नाम पर मशीन बनकर खुश हैं।
ऐसे में, सत्य के सन्दर्भ में वर्त्तमान के पास केवल दो ही विकल्प हैं, या तो हम जो देख रहे हैं उस पर विश्वास करें या फिर हमारा विश्वास इतना सुदृढ़ हो की वह सत्य के रूप में जीवंत हो उठे, निर्णय हमें करना है की हम सत्य के रूप में क्या देखना चाहते हैं !
यही कारन था की हिन्दू धर्म ने भक्ति के प्रेम और कल्पना की रचनात्मकता के माध्यम से ईश्वर को मूर्त रूप प्रदान किया ताकि परिस्थितियों के परिवर्तन के क्रम में भी धर्म के रूप में सत्य पर हमारा विश्वास अडिग हो। दुर्भाग्यवश मानवीय समझ की सीमितता ने इसी सम्भावना को वर्तमान की सबसे बड़ी समस्या बना दिया है, तभी तो, आज हम ईश्वर के जड़ प्रारूप की आराधना करते हैं पर अपने अंदर ईश्वरीय तत्व को नहीं खोज सकते।
आखिर कब तक इस संसार में ईश्वर कहानियों, मान्यताओं और किंवदंतियों में जीवित रहेगा? और वैसा ईश्वर क्या सही अर्थों में जीवन की व्यवहारिकता में अपना सकारात्मक प्रभाव डाल सकेगा ?
धर्म के आडम्बर और औपचारिकता से किसी का भला नहीं होने वाला फिर हम स्वयं को कितना भी धोका क्यों न दे लें ,आज हमें अपने अंदर ईश्वरीय तत्व को खोजने और पहचानने की आवश्यकता है तभी हम अपने दैनिक कर्मों के माध्यम से संसार में धर्म की स्थापना कर सकेंगे।"


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