Friday 15 December 2017

अपने को जानें भव बन्धनों से छूटें

संसार में जानने को बहुत कुछ है। पर सबसे महत्वपूर्ण जानकारी अपने आपके सम्बन्ध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियाँ प्राप्त करना सरल ही हो जाता है। ज्ञान का आरम्भ आत्मज्ञान से होता है, जो अपने को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा ?
आत्मज्ञान जहाँ कठिन है वहाँ सरल भी बहुत है। दूसरी वस्तुयें दूर भी हैं और उनका सीधा सम्बन्ध भी अपने से नहीं है। किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा हुआ ज्ञान पाया और जाना जा सकता है। पर अपना आपा सबसे निकट है, हम उसके अधिपति हैं-आदि से अन्त तक उसमें समाये हुए हैं, इस दृष्टि से आत्मज्ञान सबसे सरल भी है। शोध करने योग्य एक ही तथ्य है-आविष्कृत किये जाने योग्य एक ही चमत्कार है--वह है अपना-आपा। जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।
बाहर की चीजों को ढूँढ़ने में मन इसलिये लगा रहता है, कि अपने को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम उसमें अँधेरा दीखता है और अकेलापन। यह डरावनी स्थिति है। सुनसान को कौन पसंद करता है। खालीपन किसे भाता है। अपने को इस विपन्न स्थिति से परक है, स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागते हैं। अपने को देखने खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजों को ढूँढ़ते फिरते हैं कैसी है यह विडंबना।
क्या वस्तुतः भीतर अँधेरा है ? क्या वस्तुतः हम अकेले और सूने हैं ? नहीं प्रकाश का ज्योति-पुज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुँह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने से तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और हिमालय तथा समुद्र भी दीखना बन्द हो जाते हैं। फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े हो जायें तो शून्य के अतिरिक्त और दीखेगा भी क्या ?
बाहर केवल जड़ जगत है। पंच भूतों का बना हुआ निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आँखों से दीखता है कानों से सुनाई पड़ता है जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जायगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अन्दर जो है वही सत् है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अन्तःदृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अन्तर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।
जिस प्रकार पीतल के पात्रों को यदि नित्य स्वच्छ न किया जाये तो वे अपनी चमक खो देते हैं, और जंग लग जाती है, उसी प्रकार यदि साधक नित्य साधना ना करे तो उसका हृदय भी अपवित्र होने लगता है। -तोतापुरी
स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शान्ति आदि विभूतियों की खोज में कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है। बाहर भरी हुई जड़ता में चेतना कैसे पाई जा सकेगी। जिसे ढूँढ़ने की प्यास और चाह है वह तो भीतर ही भरा पड़ा है। जिसे कुछ मिला है यहीं से मिला है। कस्तूरी वाला हिरण तब तक उद्विग्न और अतृप्त ही फिरता रहेगा जब तक कि अपने ही नाभि केन्द्र में कस्तूरी की सुगन्ध सन्निहित होने पर विश्वास न करेगा, बाहर जो कुछ भी चमक रहा है सब अपनी ही आँखों का प्रकाश प्रतिबिंब मात्र है।
श्रुति कहती है- अपने आपको जानो आपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। उसी को ऋषियों ने दुहराया है और तत्वज्ञानियों ने उसे ही सारी उपलब्धियों का सार कहा है। क्योंकि जो बाहर दीख रहा है वह भीतरी तत्व का ही विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है संसार का स्वरूप भी वैसा ही दीखता है। बाहर हमें जैसा देखना पसन्द हो उसे भीतर से खोज निकालें। यही अन्वेषणा की चरम सीमा है।

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