Friday, 15 December 2017

प्रेम का स्तर ऊँचा है part 2


 वह न वस्तु के स्थूल रूप को देखता है और न व्यक्ति के शरीर आकर्षण को। वरन् प्रेमी की दृष्टि उन आवरणों के अन्तराल में छिपी हुई दिव्य सत्ता को देखने की-उसकी रसानुभूति उपलब्ध करने की रहती है। साकार मूर्ति पूजा के माध्यम से हम पदार्थों के भीतर छिपी हुई दिव्य सत्ता को अनुभव करने और उसके साथ भक्ति भावना का समन्वय करने का अभ्यास करते हैं। देव प्रतिमायें धातु या पत्थर की बनी होती हैं। धातु तथा पत्थर का मूल्य नगण्य है। उनका सामान्य उपयोग उपेक्षापूर्वक होता रहता है, चाहे तो इस व्यवहार को तिरस्कार भी कह सकते हैं। पर इसी पत्थर या धातु की बनी देव प्रतिमा के सम्मुख हम भाव विभोर हो जाते हैं यह भावना पत्थर या धातु के प्रति नहीं वरन् उसके अन्तराल में छिपी हुई देव सत्ता के प्रति है। जहाँ ऐसी दृष्टि होगी वहाँ वह पत्थर कभी भी अनाकर्षक प्रतीत न होगा वरन् जितना पुराना होता जायगा उतना ही सम्मान होता भी अधिक है। यही बात प्राचीन ध्वंसावशेषों, ऐतिहासिक स्मारकों, तीर्थों के बारे में लागू होती हैं। स्थूल रूप से वे सब पुराने-धुराने जीर्ण शीर्ण होने के कारण- नई इमारतों की तुलना में मूल्य, कला, उपयोगिता आदि की दृष्टि से नगण्य ही ठहराये जा सकते हैं पर चूँकि उनके पीछे ऐतिहासिक और भावनात्मक तथ्य जुड़े हैं। इसलिये वे स्वभावतः बहुत आकर्षक लगते हैं और उन्हें देखने के लिए लोग बहुत धन और समय खर्च करके बहुत कष्ट उठाते हुए भी पहुँचते रहते हैं।
प्रतिशोध और सहनशीलता से हम प्रेम को ईश्वर के समकक्ष पहुँचा सकते हैं|
यदि स्थूल दृष्टि से इन दर्शनीय स्थानों का मूल्याँकन किया जाय तो निःसन्देह उनमें से सभी अनाकर्षक लगेंगे। जो आकर्षक हैं उनके चित्र आदि देखकर काम चलाया जा सकता है। पर देखने की जो तीव्र अभिलाषा होती है उसके पीछे उन स्थानों या स्मारकों के पीछे जुड़ा सूक्ष्म दर्शन ही है जो बरबस ही व्यक्ति को अपनी ओर खींचता रहता है। मेले-ठेले देखने जाते हैं तो एक दुकान पर बहुत देर खड़े रहने की इच्छा नहीं होती, पर तीर्थों या देव मंदिरों के बारे में यह बात लागू नहीं होती। बार-बार उन्हें देखते हैं पर आकाँक्षा बनी रहती है। कितने व्यक्ति अपना प्रिय घर परिवार छोड़कर भी इन पुण्य तीर्थों में निवास करने लगते हैं। सुविधा की दृष्टि से यद्यपि घर परिवार ही अच्छा था पर भावना का आकर्षण उन असुविधाजनक स्थानों में निवास करने पर शान्ति प्रदान करता है। यह तथ्य बताते हैं कि वस्तु का स्थूल रूप देर तक आनन्द नहीं दे सकता। उसकी अन्तः सत्ता की सूक्ष्मता और दिव्यता को देखा समझा जा सके तो ही वह चिर उल्लास दे सकने में समर्थ होगा। मूर्तिकारों के यहाँ बिकने वाली एक से एक सुन्दर प्रतिमा में वह श्रद्धा या आकर्षण नहीं होता जो किसी प्राचीनकाल की अनगढ़ प्रतिमा में होता है। यह सूक्ष्म दर्शन का ही चमत्कार है।
व्यक्तियों के बारे में भी यही बात लागू होती है। उनके साथ यदि वाह्य आकर्षणों से प्रभावित होकर प्रेम किया गया है तो उसमें स्थिरता रह न सकेगी। रंग, रूप पर हाव भाव पर मोहित होकर कई व्यक्ति परस्पर प्रेमी बन जाते हैं। धन, कौशल, कला, सफलता, पद, सत्ता, विनोद आदि के आकर्षण भी कई बार मित्रता के लिए आकर्षित करते हैं। आमतौर पर इन्हीं आधारों पर मित्रता जुड़ती रहती है। युवा स्त्री-पुरुषों के बीच जो जल्दी और गहरी मित्रता जुड़ जाती है उसके पीछे आमतौर से वासना की तृप्ति तथा दूसरे भौतिक लाभों की प्राप्ति ही प्रधान कारण देखी जाती है। यों इस आकर्षण को भी नाम प्रेम का ही दिया जाता है और गीत वैसे ही गाये जाते हैं। पर वस्तुतः बात वैसी ही नहीं है।
शाश्वत प्रेम का स्तर उससे बहुत ऊँचा हैं। वह यदि वस्तु से किया गया है तो उसकी उपयोगिता के प्रति श्रद्धा रखकर ही किया जाता है। मंदिरों में प्रसाद प्रायः एक ही तरह का मिलता है पर उसे स्वाद की दृष्टि से न देखकर श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है इसलिये उसमें स्वाद परिवर्तन की इच्छा या अरुचि नहीं होती । संसार में जो वस्तुयें है वे मेरे उपभोग के लिए वरन् इस विश्व की शोभा व्यवस्था बनाये रहने के लिए परमात्मा की पुनीत कृति के रूप में है। यह मान्यता यदि मन में हो तो कोई पदार्थ अरुचिकर नहीं लगेगा वरन् उसकी लोक मंडल के लिए आवश्यकता को समझते हुए श्रेष्ठतम उपयोग करने की इच्छा होगी। तब दुरुपयोग किसी वस्तु का न हो सकेगा, न अपव्यय किया जा सकेगा, न उपेक्षापूर्वक रत्तीभर बर्बादी सम्भव होगी। हर वस्तु को यहाँ तक कि कूड़े और मल-मूत्र को भी उसके उचित स्थान पर इस प्रकार रखने की बुद्धि जगेगी जिससे उसे तिरस्कृत या हेय न समझा जाय तो निश्चय ही उन्हें अधिक स्वच्छ, व्यवस्थित एवं सदुपयोग की स्थिति में ही रखा जाये। तब किसी पदार्थ से न तो अरुचि होगी न घृणा न निराशा।
व्यक्ति प्रेम के सम्बन्ध में भी यही बात है। मनुष्य के भीतर रहने वाली पर पवित्र आत्मा में जब स्नेह भावना जुड़ती है तो उसकी श्रेष्ठता के प्रति श्रद्धा रखने और उसे अभिसिंचित करने की भावना रहती है। दोष हर व्यक्ति में सम्भव है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जो त्रुटियाँ हैं उन्हें सुधारने पर आशा भरा विश्वास रखा जाता है और जब तक अनुकूलता उत्पन्न न हो तब तक सहने और निबाहने का भाव रखा जाता है। इस सन्तुलित दृष्टि के साथ जो प्रेम किया जाता है वह न तो त्रुटियाँ सामने आने पर निराश होता है और न रंग-रूप अथवा लाभ का आकर्षण घटने पर खिन्न होता है। आस्था के आधार पर जब मिट्टी के ढेले को गणेश बनाकर रखा जा सकता है तो मिट्टी की काया में समाये हुए अमृत आत्मा के समावेश युक्त सजीव व्यक्ति के प्रति क्यों आत्मीयता नहीं बनाये रखी जा सकती ?
प्रेम वस्तुतः एक आन्तरिक दिव्य अनुभूति है जो पदार्थ या व्यक्ति के माध्यम से विकसित भर होता है। अन्ततः वह आदर्शों पर जा कर जम जाता है ओर समस्त विश्व में फैल जाता है। प्रेम एकाँगी होता है। इसलिए उसका आदि होता है अन्त नहीं। कलम टूट जाने से भी मस्तिष्क में भरी विद्या का अन्त नहीं होता इसी प्रकार किसी पदार्थ या व्यक्ति के अनुपयुक्त या हानिप्रद सिद्ध होने पर भी सहज आत्मीयता में कमी नहीं आती। अपनापन जिस बालक में जुड़ा होता है वह कुरूप या बीमार होने पर भी स्नेह भाजन कृपापात्र एवं सहयोग का अधिकारी ही बना रहता है। यह आत्मीयता जब अपनी प्रौढ़ स्थिति में पहुँचती है तो उसकी प्रेम साधना व्यष्टि से बढ़कर समष्टि में संव्याप्त हो जाती है, और उस पदार्थ या व्यक्ति के न रहने पर भी अवरुद्ध नहीं होती। अपने शरीर में भरे हुए अशुभ और अवाँछनीय तत्वों को जब हम सहन कर लेते हैं तो दूसरों के दोष देखकर ही क्यों अपनी प्रेम साधना समाप्त कर ली जाय ?
प्रेम की कभी तृप्ति नहीं होती क्योंकि उसका क्षेत्र व्यापक है। अधिक सेवा, अधिक त्याग, अधिक अनुदान देने की प्रेम भरी प्रवृत्ति तब तक विकसित ही होती रहती है जब तक कि उसका अपना कहने लायक कुछ भी शेष रहता है। प्रेमी देना ही जानता है सो देते देते जब अपनी अहंता तक प्रभु चरणों में समर्पित नहीं कर देता तब तक अतृप्ति ही बनी रहती है। पूर्ण समर्पण में जब अहंता का लय हो जाता है तभी तृप्ति मिलती है। जब तक प्रेमी का अस्तित्व मौजूद है-पूर्ण समर्पण नहीं हुआ तब तक अतृप्ति ही रहेगी। सो तत्व दर्शियों ने ठीक ही कहा है-प्रेम का आरम्भ होता है उससे निवृत्ति मिलती है और न उसकी पूर्ति होती है। 

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