"चुपचाप रहने का अभ्यास करें और व्यर्थ की बातों से स्वयं को अलग कर लें।
सिर्फ श्वासों के आवागमन पर ही अपना ध्यान लगाए रखें
और सामने जो भी दिखाई या सुनाई दे रहा है
उसे उसी तरह देंखे जैसे कोई शेर सिंहावलोकन करता है।
सोचे बिल्कुल नहीं और कहें कुछ भी नहीं,
बल्कि ज्यादा से ज्यादा चुप रहने का अभ्यास करें।
साक्षी भाव में रहें,
अर्थात किसी भी रूप में इन्वॉल्व ना हों।
परमात्मा हमेशा मौन है।
यह उसका सहज स्वभाव है।
उसने कभी अपना नाम नहीं बताया।
उसने कभी यह तक नहीं कहा कि उसका कोई नाम नहीं है।
उसके सारे नाम ज्ञानियों और भक्तों द्वारा दिए गए नाम हैं।
उसने कभी अपने परमात्मा होने का भी दावा नहीं किया।
उसे बोलने की, दावा करने की और अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कभी जरूरत नहीं पड़ती।
जिसे ऐसा करना पड़े वह परमात्मा नहीं है।
दावा अहंकार का, अज्ञान का, अशक्ति का लक्षण है।
परमात्मा आख़िर क्यों दावा करे?
सत्य इतना विराट और इतना अनंत है कि उसे किसी भी तरह से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
अनंत को भला सीमा में कैसे बाँधा जा सकता है?
दरअसल सत्य को संवादों के जरिए कभी अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता।
इसलिए ज्ञानियों के बीच अक्सर संवाद संभव नहीं हो पाते।
प्रतिदिन मौन का अभ्यास करें, यह जीवन परिवर्तित करने का सामर्थ्य रखता है।"
"साभार-अनाम"
No comments:
Post a Comment