Friday 15 December 2017

अध्यात्म की साधना.....

अध्यात्म की साधना.....
आप बगीचे में विभिन्न रूप रंगों के पुष्प देखते हैं। पुष्पों का रंग रूप एवं सौरभ महसूस कर जान लेते हैं कि यह अमुक फूल है। वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से हम वस्तु को जान लेते हैं। प्रश्न होता है- फूल क्या है ? फूल का रंग-रूप फूल नहीं है, फूल की सुगन्ध फूल नहीं है, फूल के गुणों से फूल को पहिचानते हैं पर फूल के गुण तो फूल नहीं है। वह क्या है जिसके आधार पर फूल के ये गुण टिके हुए हैं ? जो हम जान रहे हैं, बता रहे हैं, वे सब तरंगें हैं, सागर नहीं है। तो फिर फूल का मूल क्या है ? आध्यात्मिक खोज रहा हे, वैज्ञानिक खोज रहा है, इस मूल को। इसी मूल को खोजने में धर्म का जन्म हुआ, अध्यात्म का विकास हुआ।
एक यक्ष प्रश्न है-‘किमाश्चर्यं मतः परम’ अर्थात् सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? हम अपने आपको नहीं जानते यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। हजारों वर्षों से आदमी के सामने प्रश्न है - कोऽहम् मैं कौन हूं।’ ‘मैं कौन हूं’ इस प्रश्न के अन्वेषण में आदमी ने अपने अस्तित्व की कई परतें उघाड़ी। उसे प्रतीत हुआ-मेरा यह शरीर मैं नहीं है, मेरी इन्द्रियां, मेरी बुद्धि मैं नहीं है। एक बिन्दु आया, एक अन्तिम ठहराव आया, साधक के अनुभव में, वह अनुभव था, ‘सोऽहम’ ‘मैं हूं’ मेरे सिवाय अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। अध्यात्म की यात्रा ‘कोऽहम्’ से प्रारम्भ हुई एवं ‘कोऽहम्’ पर सम्पूर्ण हुई। अनन्तकाल से बेटा खोज रहा है अपने परम पिता को और परमपिता बेटे के हृदय में बैठा-बैठा मुस्करा रहा है तथा कह रहा है-यह रहा मैं।
आज मूल प्रश्न है-आदमी का जीवन कैसे बदले ? आदमी को परम शान्ति एवं परमानंद की प्राप्ति कैसे हो ? आदमी को बदलने के लिए अध्यात्मिक यात्रा परमावश्यक है। आध्यात्मिक साधना का अर्थ है-भीतर की यात्रा। आध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर। आत्मा के बाहर-बाहर हम यात्रा कर रहे हैं। अतीत से कर रहे हैं। कभी भीतर जाने का अवकाश ही नहीं मिला। हम मानते हैं दुनिया में जो कुछ सार है वह बाहर ही है भीतर कुछ भी नहीं। वास्तविकता यह है कि जो भीतर की यात्रा कर लेता है उसे बाहर का सत्य असत्य जैसा प्रतिभासित होने लगता है। जैसे दिन भर का थका हुआ पक्षी अपने घोंसले में आकर विश्राम करता है वैसे ही बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से त्रस्त आदमी कहीं विश्राम ले सके; कहीं शान्ति का अनुभव कर सके वह स्थान हो सकता है-केवल अध्यात्म, केवल भीतर का प्रवेश। साधना करते-करते अनुभव की चिन्गारियां उछलती है, अनुभव के स्फुलिंग बिखरते हैं, तब आदमी यह घोषणा करता है-बाहर निस्सार है, भीतर सार है। हमने भीतर को खोया-सब असार हाथ लगा। हमने भीतर को पाया-सब सार ही सार प्रतीत हुआ।
सभी धर्म इसी ओर संकेत कर रहे हैं। उपनिषद् कहते हैं। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत’ शिव बनकर शिव का अनुभव करो।
अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बुद्ध कहते हैं-‘अप्प दीपो भव’। महावीर कहते हैं ‘संपेक्खिए अप्प गमप्यएण’ आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बाइबिल कहती है 'O Father, Make my the eye, make my the light' कुरान कहती है, ‘मेरे खुदा, तेरे नूर की रोशनी इस बंदे में भर दे।’ सभी घोषणाएं एक ही गन्तव्य की ओर संकेत कर रही हैं। वीथिकाएं, पगडण्डियां अलग-अलग हो सकती हैं पर लक्ष्य सबका एक ही है और वह लक्ष्य है-आत्मा का साक्षात्कार या आत्मा की अनुभूति। आत्मा की अनुभूति के बिना आदमी का आमूल-चूल रूपान्तरण संभव नहीं है। आत्मानुभूति के लिए एक ठोस, वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक मार्ग चाहिए, एक सिस्टेमेटिक टेक्नीक चाहिए, एक विश्वसनीय पद्धति चाहिए। आप क्रोध को रोकना चाहते हैं पर रूकता नहीं अपितु रोकने के प्रयास में वह उग्र हो जाता है। हम क्रोध को रोक नहीं रहे हैं, क्रोध से कुश्ती लड़ रहे हैं। जितनी बार हमारी क्रोध से कुश्ती होती है, हम पराजित होते हैं। क्रोध और प्रबल हो जाता है और हम निर्बलतर हो जाते हैं। अध्यात्म यह कहता है-अंधकार को समाप्त करने के लिए अंधकार से लड़ने की क्या आवश्यकता है। अंधकार से लड़ा नहीं जाता। जिसकी सत्ता ही नहीं उससे लड़ाई कैसे होगी ? सत्ता तो प्रकाश की है। प्रकाश के अभाव का नाम, अनुपस्थिति का नाम अंधकार है। प्रकाश कर लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है। प्रकाश आ जाए तो अंधकार नहीं है। अशान्ति भी अभाव है, दुःख भी अभाव है, घृणा भी अभाव है। घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति। प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो तो घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य सत्य की अनुपस्थिति है। सत्य बढ़े, सत्य विकसित हो तो असत्य क्षीण हो जाएगा। अशान्ति शान्ति की अनुपस्थिति है। शान्ति जगेगी, शान्ति बढ़ेगी, अशान्ति विदा हो जाएगी। आवश्यकता है विधायक पक्ष को उभारने की, बाहर लाने की। ज्यों ही विधायक पक्ष उभरेगा, निषेधात्मक पक्ष विदा हो जाएगा। विधायक पक्ष को सबल करने के लिए साधना की आवश्यकता है। मनुष्य योनि से पूर्व की सभी योनियां प्रकृति एवं महाकाल के विधान पर आश्रित हैं। उनको कुछ करने कराने की आवश्यकता नहीं है। वे तो तैरती रहती हैं, बहती हैं। उन्हें अपने उद्धार करने की कोई चेष्टा नहीं करनी है। उनकी पदोन्नति तो उर्ध्व मुखी, सीधी एवं सरल है। मनुष्य योनि में स्वकृत कर्मों का फल भोगना होता है। यहां कर्म की गति वक्र, चक्राकार एवं अनन्त वैचित्रयमयी हो जाती है। मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं का ही करना होता है। अतः उपनिषद् कहता है, ‘उद्धेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्धार स्वयं को ही करना है।
प्रश्न है, यह उद्धार कैसे संभव है? उद्धार के लिए वैराग्य भाव चाहिए या अभ्यास चाहिए। वैराग्य का अर्थ है जो पूर्णतया राग मुक्त हो गया हो। जो जीतने की कामना करता है उसे ही हार का भय सताता है। वैराग्य का अर्थ है-पूर्ण अनासक्ति। वैराग्य में केवल अनुराग बचता है और सब छूट जाते हैं। पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए वैरागी होना संभव नहीं है। वैराग्य या तो प्रारब्ध कर्मवशात् उत्पन्न होता है या फिर अभ्यास के द्वारा प्राप्त हुई अनुभूति के कारण पैदा होता है। बूढ़े, रूग्ण एवं मृत व्यक्तियों को हम देखते ही हैं पर हमसे से कितनों को वैराग्य होता है पर बुद्ध ने ज्यों ही बीमार, बूढ़ा एवं मृत को देखा, वैराग्य हो गया। तुलसीदास ने अपनी पत्नी की एक झिड़की पर ही संसार से मुख मोड़ लिया। निमित्त पाकर प्रारब्ध कार्य जागे, वे प्रभु प्रेम में लीन हो गए। भर्तृहरि को उसकी पत्नी ने धोखा दिया, वे अलख जगाने राजमहल से निकल पड़े। ऐसे हजारों उदाहरण आध्यात्मिक इतिहास में मिल जाएंगे, जब एक छोट सा निमित्त पाकर व्यक्ति वैरागी हो गया।
समाधान यही मिलता है कि वैराग्य भाव प्रारब्ध कर्मजन्य है तो फिर बचता है अभ्यास। अभ्यास हर व्यक्ति, जो रूचि रखता है, कर सकता है। अभ्यास का अर्थ है-पुरुषार्थ। पुरुषार्थ का अर्थ है-वर्तमान में जीना। महावीर ने कहा है-‘खणं जाणिए पंडिए’-साधक तुम क्षण हो जानो’ क्षण को जानना ही पुरुषार्थ है। हम या तो भूतकाल में जीते हैं या फिर भविष्य में। वर्तमान में जीना हमें नहीं आता। वर्तमान में जीने का अर्थ है-पुरुषार्थ करना, अभ्यास करना। अभ्यास के लिए हमारे पास तीन आधार हैं !


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