-----------------प्राणायाम------------
सीधे होकर बैठना होगा। मेरुमज्जा मेरुदंड से संलग्न नहीं हैं फिर भी वह मेरुदंड के भीतर है। टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त व्यस्त हो जाती है। शरीर के तीनो भाग----वक्ष…ग्रीवा और मस्तक … सदा एक रेखा मे ठीक रखने होंगे। इसके बाद स्नायुओं को वशीभूत करने का प्रयत्न करना होगा। हम साधारणत: जिस तरह सांस लेते और छोड़ते हैं यह श्वांस प्रश्वांस के नाम के योग्य ही नहीं।
पहली साधना -----
भीतर निर्दिष्ट परिमाण मे सांस लो और निर्दिष्ट परिमाण मे बाहर छोड़ो। इस सम़य ॐकार का उच्चारण मन ही मन करना उचित होगा। चिंतन करना कि ॐ शब्द श्वांस के साथ लययुक्त व संतुलित रूप से बाहर जा व भीतर आ रहा है।इससे सारा शरीर क्रमश: लययुक्त होता जाएगा। कुछ महीने के बाद अतिशय थके हुए स्नायु शांत हो जाएंगे ; मुख की कांति बदल जाएगी और स्वर क्रमश: मधुर हो जाएगा।
दूसरी साधना:-----
इड़ा अर्थात् बांये नथुने से फेफड़े को धीरे धीरे वायु से पूरा करो। तथा स्नायु प्रवाह में मन को एकाग्र करो। सोचो कि स्नायुप्रवाह से मूलाधार स्थित त्रिकोणाकृति पद्म पर आघात कर रहे हो। स्थिति को कुछ क्षण धारण किये रहो। फिर दाहिने नथुने से वायु धीरे धीरे बाहर फेंको। ऐसे करने के लिए अंगूठे से एक नासाद्वार बंद कर लेना सरल मार्ग है।
यहां चार सेकंड पूरण व सोलह सेकंड कुम्भक तथा आठ सेकंड मे वायु रेचन करो। इससे एक प्राणायाम होगा।
यहां चार सेकंड पूरण व सोलह सेकंड कुम्भक तथा आठ सेकंड मे वायु रेचन करो। इससे एक प्राणायाम होगा।
तीसरी साधना:-----
धीरे धीरे भीतर श्वांस खींचो। फिर बिना देर किए धीरे धीरे वायु रेचन करके बाहर ही श्वांस कुछ देर के लिए रुद्ध रखो। पहले और तीसरे प्राणायाम मे केवल भेद इतना है कि पूर्वोक्त मे सांस भीतर रोकनी होती है और इसमें बाहर।
प्रथम साधना का अधिक अभ्यास अच्छा नहीं। सुबह शाम चार चार बार करना ठीक रहेगा जब सहज हो जाओ और आनंद महसूस हो तो छह कर सकते हो। अनियमित साधना से अनिष्ट हो सकता है।
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