Wednesday 13 December 2017

--------संगीत--------

--------संगीत--------
सम्पूर्ण संसार अप्रत्यक्ष रूप से संगीतमय है। सृष्टि की गहनता में जो एक विश्वव्यापी प्राण कम्पन चल रहा है…गायन सुनकर उसकी वेदना गति हम अपने चित्त मे अनुभव करते हैं। समस्त मानव जीवन भी अनंत की रागिनी में बंधा है। संगीत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। सूर्य…चंद्र…तारा…औषधि…वनस्पति आदि सभी ने इस विशाल विश्व संगीत मे अपने किसी न किसी विशेष स्वर का योगदान दिया है।
संगीत ईश्वरीय वाणी है; अत: ये ब्रह्मरूप ही है। संगीत आनंद का आविर्भाव है और आनंद ईश्वर का स्वरूप है। संगीत के द्वारा ऐसे अद्वितीय सुख की प्राप्ति होती है जिसका दुख से तनिक भी संबंध नहीं है। अन्य विषयों से प्राप्त सुख में अप्रत्यक्ष रूप से दुख का समावेश रहता है और इस दुखपूर्ण जगत में संगीत स्वर्गावास है। संगीत योग की विशेषता यह है कि इसमे साधन और साध्य दोनो ही सुख स्वरूप हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति नाद ब्रह्म मानी गई है। ब्रह्मांड के सम्पूर्ण जड़ चेतन मे नाद व्याप्त है इसी कारण इसे नाद ब्रह्म भी कहते हैं। शब्द रूपी ब्रह्म अनादि; विनाशरहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से जगत भासित होता है।

संगीत लोक की भाषा और परलोक की सीढ़ी है। रोगी…भोगी और योगी सभी संगीत सुनने को उत्सुक रहते हैं। संभवत: इसीलिए प्राचीन नायकों ने इसे मोहिनी विद्या की संज्ञा दी है।
संगीत अन्तर्मन की भाषा है। सम्पूर्ण जीवन संगीत से सराबोर है। यह आत्मा का निर्मल दर्पण ही नही अपितु परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है। मनोव्यथा जब असह्य और अपार हो जाती है तब उसे कहीं त्राण नहीं मिलता और जब वह रुदन और क्रंदन की गोद मे भी आश्रय नहीं पाती तो संगीत के चरणों मे जा गिरती है।
गायन व वादन और नृत्य के सम्मिलित रूप को संगीत कहते हैं। गायन के अधीन वादन तथा वादन के अधीन नर्तन है। इन तीनों मे गायन सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार सम्यक प्रकार से अर्थात् स्वर ताल और लय व शुद्ध उच्चारण तथा हाव भाव और शुद्ध मुद्रा आदि के साथ किये जाने वाले गायन को संगीत कहते हैं।

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