Wednesday 13 December 2017

कर्म एक प्रवाह है। सृष्टि मे अनवरत बहने वाले प्रवाह के दो किनारे हैं-

कर्म एक प्रवाह है। सृष्टि मे अनवरत बहने वाले प्रवाह के दो किनारे हैं----
१- दिक्(space)
२- काल(time)
इसके बिना कर्म की कल्पना संभव नहीं है। कर्म का परिपाक कब होगा? जो किया गया है उसका परिणाम कब आयेगा; यह समय साध्य है। पर कर्म के परिणाम की प्राप्ति कहाँ होगी; यह उसके स्थान से संबंधित है। इन तीनों के समन्वय से जीवन के अतीत वर्तमान व भविष्य की गणना संभव होती हाेती है और यहीं से ज्योतिष का भी आविर्भाव भी हुआ।
ज्योतिष दिक्काल एवं कर्म की सूक्ष्मता की गणना एवं विवेचना करता है।इसके लिए तीनो की महत्ता अतुलनीय है। इसमे से किसी को भी हटा दिया जाय तो गणना अधूरी रह जाती है। ज्योतिष जिसे प्रकाश कहा जाता है; जीवन के तीनो कालखंडों को प्रकाशित कर उनकी सटीक व्याख्या करता है। दर्शन की भूमि मे इसकी व्याख्या और भी गूढ़ गंभीर हो जाती है। इसके अनुसार देश और काल विश्वगत चिरंतन आत्मा की अभिव्यक्ति के दो पहलू हैं। देश उसे कहते हैं जहाँ रूप और विषय होते हैं। जहाँ समय प्रवाहित होता है उसे दिक् कहते हैं। यह सीमातीत व त्रिआयामी होता है जहाँ पर वस्तु; परिस्थितियां और घटनाएं आकार पाती हैं और नियंत्रित होती हैं।
देश और काल एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं। ये दो आधार हैं जहां सृष्टि चलती है। देश और काल ताने बाने की तरह एक दूसरे मे गुंथे हैं। दोनो ही सापेक्ष सत्ताएं है। देश की अवस्था के अनुरूप काल का स्वरूप रहता है। इसे एेसे समझा जा सकता है कि जाग्रत अवस्था मे जिस देश मे रहते हैं काल का परिमाण भी उसी के अनुरूप रहता है। जो घटनाएं जाग्रत अवस्था मे दो दिन मे घटती हैं वही स्वप्न मे दो घंटे मे अनुभव हो जाती हैं।
प्रकृति की सीमाएं तक ही दिक्; काल और कर्म का स्थान है। नाम और रूप यहीं तक सीमित है। ज्योतिष की सीमाएं भी यहीं तक है; क्योंकि इन्ही के होने पर ही गणना संभव है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति का निरोध ही योग साधना का सुफल है----
तदा द्रष्टु: स्वरूपेsवस्थानम्
अर्थात वृत्तियों का निरोध होने पर द्रष्टा अपने मूल रूप मे अवस्थित हो जाता है। यहाँ न कोई दिक् है न काल और न कर्म की समाप्ति। यहाँ मन का शासन समाप्त हो जाता है। यहाँ साधक सिद्ध हो जाता है। यहाँ योगी द्रष्टा व साक्षी भाव को उपलब्ध हो जाता है। वह स्वयं मे अपने अस्तित्व के केन्द्र मे; अपनी आत्म चेतना मे अवस्थित हो जाता है।
यही बुद्धत्व का अनुभव व योगियों का कैवल्य है।
ज्ञानियों की चरम दशा है
साधनाओं के सभी पथ इसी लक्ष्य की ओर जाते हैं।
सूर्य भी नही है ज्योति सुंदर शशांक नहीं;
छाया सा यह व्योम मे यह विश्व नजर आता है।
मनोआकाश अस्फुट; भासमान विश्व वहाँ;
अहंकार स्रोत मे ही तिरता डूब जाता है।
धीरे धीरे छायादल लय मे समाया जब
धारा निज अहंकार मंदगति बहाता है।
बंद वह धारा हुई शून्य से मिला है शून्य
अवाङ्गमनसगोचरम् वह जाने जो ज्ञाता है।


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