शरीर में ईश्वर ही स्थित है।श्वास,प्राण,धड़कन सब पर उसका ही अधिकार है,हम तो केवल अहंकारवश ही स्वयं को शरीर का मालिक कहते हैं।शरीरस्थ ईश्वर के यज्ञ में आहुति है हमारा भोजन। तो सोचिए कैसे भोजन की आहुति हम डाल रहे हैं।माँस,मदिरा या सात्विक आहार???
कान हैं उसके आरती ग्रहण के साधन। तो सोचें कानों से हम क्या उस ईश्वर तक पहुँचा रहे हैं।???
नाक से धूपादि सुगंधित द्रव्य हम दे रहे हैं या धूम्रपान से उसे विमुख कर रहे हैं???
आँख है उसका दर्पण। हम उसे दर्पण द्वारा किन दृश्यों को दिखा रहे हैं??? ये सोचें???
अपने कुकृत्यों से हम मुक्ति के परम साधन इस शरीर,इन्द्रियभूत,और ईश्वर को भी विमुख करने वाले तो नही बन रहे यह विचार हर काम में आवश्यक है। गीताजी भी कहती है---कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥
भावार्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान॥17/6॥कृष्ण चंद्र
कान हैं उसके आरती ग्रहण के साधन। तो सोचें कानों से हम क्या उस ईश्वर तक पहुँचा रहे हैं।???
नाक से धूपादि सुगंधित द्रव्य हम दे रहे हैं या धूम्रपान से उसे विमुख कर रहे हैं???
आँख है उसका दर्पण। हम उसे दर्पण द्वारा किन दृश्यों को दिखा रहे हैं??? ये सोचें???
अपने कुकृत्यों से हम मुक्ति के परम साधन इस शरीर,इन्द्रियभूत,और ईश्वर को भी विमुख करने वाले तो नही बन रहे यह विचार हर काम में आवश्यक है। गीताजी भी कहती है---कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥
भावार्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान॥17/6॥कृष्ण चंद्र
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