Thursday 30 November 2017

बुद्धत्व कभी—कभी खिलता है।

बुद्धत्व कभी—कभी खिलता है।
वह सहस्रार का कमल कभी—कभी खिलता है। उसकी आकांक्षा न करे मनुष्य जो रोज खिलता है, जो रोज मिलता है। उस क्षुद्र में कुछ भी नहीं है। उसकी आकांक्षा करे जो अपूर्व है, अद्वितीय है, अनिर्वचनीय, पकड़ के बाहर है। उसे चाहे जो असंभव है।
जिस दिन असंभव को चाहा, उसी दिन मनुष्य धार्मिक हुआ। असंभव की वासना— धर्म की परिभाषा है।
संभव में क्या भरोसा करना! संभव में भरोसा करने के लिए कोई बुद्धिमानी चाहिए, कोई बड़ी प्रतिभा चाहिए? संभव में भरोसा तो बुद्धु से बुद्धु को आ जाता है।असंभव में भरोसे के लिए भीतर श्रद्धा के पहाड़ उठें, गौरीशंकर निर्मित हो, तो असंभव
की श्रद्धा होती है। असंभव की चाह है धर्म। 'पैशनफॉर द इंपॉसिबल!'
' धर्म, अध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़
दिए गए हैं?'
नहीं, जरा भी नहीं। वे संबोधन बडे सार्थक हैं। धर्म का अर्थ होता है. स्वभाव।
वह बड़ा सांकेतिक शब्द है।
धर्म का अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं होता। रिलिजन या मजहब को तो संप्रदाय कहते हैं।
धर्म का अर्थ तो बड़ा गहरा है।
जिसके कारण जैन, धर्म है; और जिसके कारण हिंदू धर्म है; जिसके कारण ये सारे धर्म, धर्म कहे जाते है—वह जो सबका सारभूत है, उसका नाम धर्म है। ये सब उस धर्म तक पहुंचने के मार्ग हैं, इसलिए संप्रदाय हैं।
जैन एक संप्रदाय है, बौद्ध एक संप्रदाय है, इस्लाम और ईसाइयत एक संप्रदाय है।
धर्म तो वह है जहां तक संप्रदाय पहुंचा देते हैं। इसलिए इस्लाम को धर्म कहना उचित नहीं—संप्रदाय! 'संप्रदाय' शब्द अच्छा है। इसका अर्थ होता है मार्ग, जिससे हम पहुंचें। जिस पर पहुंचें, वह धर्म है।
'धर्म' बड़ा अनूठा शब्द है। उसका गहरा अर्थ होता है. स्वभाव;जो आत्यंतिक स्वभाव है;भीतर के आखिरी केंद्र पर जो छिपा है बीज की तरह, उसका प्रगट हो जाना।
दुनिया में धर्म नहीं हैं।कभी—कभी धार्मिक व्यक्ति होते हैं। जो हैं, वे सब संप्रदाय हैं।
धर्म शब्द व्यर्थ नहीं है। ऐसे जबर्दस्ती आत्मज्ञान के ऊपर नहीं थोप दिया गया है।
और अध्यात्म भी बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका भी वही मतलब होता है;वह, जो मनुष्य की निजता है।


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